प्रयागराज 10 अगस्त। कानूनी सहायता के अभाव में जेलों में पड़े कैदियों की हालत पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तल्ख टिप्पणी की है। अफसोस जताते हुए कहा कि राष्ट्र आजादी का अमृत काल मना रहा है, लेकिन नागरिकों का एक वर्ग ‘जेलों की अंधेरी दीवारों’ के पीछे गुमनाम जीवन जी रहा है। क्योंकि वहां सांविधानिक स्वतंत्रता की रोशनी नहीं पहुंच रही है।
न्यायमूर्ति अजय भनोट की अदालत ने इस तल्ख टिप्पणी के साथ हत्या के आरोप में 14 साल से सजा काट रहे बुलंदशहर के रामू की जमानत अर्जी मंजूर कर ली। इसी तरह के मामले से जुड़ीं नौ अन्य जमानत याचिकाओं पर भी कोर्ट ने सुनवाई की। कोर्ट ने सरकार को विधिक सहायता के लिए दिशा-निर्देश जारी करने का आदेश दिया है।
कोर्ट ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि इस तरह के बहुत से मामले हैं, जिसमें कैदियों की जमानत याचिकाएं ठंडे बस्ते में पड़ी हैं, क्योंकि मामले पर बहस करने या शीघ्र सुनवाई का कोई प्रयास नहीं किया गया। कुछ में इन कैदियों का अपने वकीलों से कोई संपर्क नहीं है, जिससे उन्हें जमानत अर्जियों की स्थिति के बारे में पता चले।
कोर्ट ने कहा कि इन आवाजहीन कैदियों का भाग्य व्यवस्था पर एक मौन दोषारोपण है। न्यायालयों का यह सर्वोच्च कर्तव्य है कि वे यह सुनिश्चित करें कि आपराधिक कार्यवाही में उपस्थित होने वाले कैदियों को कानूनी सहायता प्राप्त हो और वे मूकदर्शक बने न रहें। कानूनी सहायता से इन्कार करने से निष्पक्ष, उचित और न्यायसंगत प्रक्रिया का उल्लंघन, अनुचित कारावास और स्वतंत्रता में कटौती होती है।
अदालत ने कहा कि समय पर जमानत आवेदन दायर न करने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कानूनी सहायता नहीं मिली। न्यायालय ने इस उद्देश्य के लिए समयसीमा प्रदान करते हुए इस बात पर जोर दिया कि ट्रायल कोर्ट/मजिस्ट्रेट, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण और जेल प्राधिकारियों पर यह दायित्व डाला गया है कि वे प्रत्येक घटना पर प्रत्येक कैदी की कानूनी सहायता की आवश्यकता की सक्रियतापूर्वक और स्वतंत्र रूप से जांच करें।