देश के चार राज्यों दिल्ली राजस्थान हरियाणा और गुजरात में फैली अरावली की पहाड़ियां इनके २९ जिलों में फैली हैं। बताया जा रहा है कि इन पर्वतों को संरक्षित करने के लिए पूर्व में पांच किलोमीटर का जंगल बसाने की बात थी जो बफर की तरह काम करेगा। सरकार का कहना है कि पहले २०३० तक २.६ करोड़ हेक्टेयर भूमि को फिर से उपजाऊ बनाया जा सकेगा लेकिन अब ऐसा क्या हो रहा है कि चर्चाओं में आ गई है अरावती की पर्वत श्रृंखला। अरावली की नई परिभाषा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में डाली गई याचिका पर अब सात जनवरी को सुनवाई होगी। पर्यावरण विद सेवानिवृत वन संरक्षक डॉ आरपी बालवान का कहना है कि अंतिम दम तक अरावली को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। बताते हैं कि राजस्थान से चलने वाली धूल भरी हवाओं को रोकने में अरावली के पहाड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। इसी की वजह से आसपास के क्षेत्रों में भूकंप का असर नहीं होता है। खबर है कि सरकार की योजना से गुरूग्राम, फरीदाबाद के इलाकों में भारी नुकसान हो सकता है। सवाल यह उठता है कि धन कुबेरों को औनी पौनी कीमत पर यह जमीन खरीदने ही क्यों दी गई। इस पर पहले से क्यों नहीं रोक लगाई गई। १९९० के बाद कार्यों की ऐसी आंधी चली चली कि गुरूग्राम और फरीदाबाद में सैंकड़ों हाउस बन गए हैं लेकिन कागजों में यह प्रतिबंधित दिखाई देते हें। नूंह में धड़ल्ले से खनन किया जा रहा है लेकिन जितना समझ आ रहा है और सुनने को मिल रहा है दिल्ली-एनसीआर के लिए जीवनदायिनी अरावली के ऊपर संकट के बादल छाए हुए हैं। यह संकट केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की दी गई नई परिभाषा से छाया बताया जा रहा है। सवाल यह उठता है कि एक तरफ तो पर्यावरण संतुलन और हरियाली को बढ़ावा देने के लिए सरकार योजना बना रही है और दूसरी तरफ चार राज्यों की जनता को अनेक प्रकार से दूषित वातावरण से बचाने के लिए जिम्मेदार इन पहाड़ियों को शब्दों के चक्रव्यूह और कागजी आंकड़ेबाजी में फंसाकर बर्बाद करने की कोशिश क्यों की जा रही है। बताते हैं कि इस मामले में अगली सुनवाई सात जनवरी को होगी। केेंद्रीय पर्यावरण एवं वन जलवायु परिवर्तन मंत्री व अलवर के सांसद भूपेंद्र यादव कह रहे हैं कि अरावली क्षेत्र में नियम विरुद्ध कोई छूट नहीं दी गई है। कुछ सोशल मीडिया पर विवाद खड़ा कर रहे हैं। अगर मंत्री जी ऐसा है तो फिर सरकार विरोध का कारण बनी नीति और इसके लिए तैयार प्रस्ताव को जनहित में समाप्त क्यों नहीं करती। मैं यह तो नहीं कहता कि सरकार गलत है लेकिन जितना किसी भी प्रकार के खनन को दी गई अनुमति के उपरांत जो खेल होता है और अनुमति से कई गुना ज्यादा जल जमीन पहाड़ और पेडृों का दोहन होता है वो किसी से छिपा नहीं है। यह कहना कि वैज्ञानिक परिभाषा तय की है कोई विशेष मायने नहीं रखती है क्येांकि इसका विरोध भी सेवानिवृत वन संरक्षक डॉ आरपी बालवान द्वारा किया जा रहा है और याचिका भी उन्हीं के द्वारा डाली गई है। जहां तक १०० मीटर से ऊपर या नीचे पहाड़ी का विवाद है तो मुझे तो लगता है कि यह विवाद होना ही नहीं चाहिए। जब हजारों लोग इस योजना का विरोध कर रहे हैं तो सरकार को यह समझना चाहिए कि कहीं ना कहीं कोई कमी जरूर होगी और इससे जुड़े २५ हजार लोगों का विरोध बिना कारण नहीं हो सकता। जहां तक एक बड़े न्यूज चौनल इंडिया टीवी और आप की अदालत के संचालक रजत शर्मा का कहना है कि अरावली की पहाड़ियों से प्रदूषण फैल रहा है क्योंकि प्रदूषित हवाएं इससे बाहर नहीं निकल पाती। इस बारे में तो यही कहा जा सकता है कि रजत शर्मा जी कुछ भी कह सकते हैं लेकिन क्या वो बताएंगे कि अगर पहाड़ों से प्रदूषण फैलता है तो फिर दुनियाभर में इन्हें समाप्त क्यों नहीं कर देना चाहिए क्योंकि कहीं सर्द हवां, कहीं शुद्ध हवा इनके हिसाब से जरूर रोका जाती होगी।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जी आप जो कह रहे हैं मैं उसे गलत तो नहीं कह सकता लेकिन जिस प्रकार से २५ हजार की संख्या इस योजना के विरोध में खड़ी हो गई है और यह संख्या बढ़ती ही जा रही है कहीं ऐसा ना हो कि यह जेन जी आंदोलन का रूप ना ले बैठे। माननीय यादव जी देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी पूरे देश में पर्यावरण संतुलन बनाए रखने नागरिकों को स्वच्छ वातावरण उपलब्ध कराने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं अगर ध्यान से देखा जाए तो कहीं ना कहीं दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक अरावली के बारे में वन मंत्रालय के प्रस्ताव में कमी है। कहने का आश्य है कि केंद्र सरकार जनहित में अनेको योजनाएं चला रही है। देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी चुनावी घोषणाओं के तहत देशवासियों को यह अहसास कराने में लगे हैं कि जो कहा है वो पूरा करेंगे। २०२९ में देश में लोकसभा चुनाव होंगे। मेरा मानना है कि इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सोशल मीडिया को इस मामले में विवादों में ना घसीटकर कुछ बड़े लोगों के हित भले ही प्रभावित हो जाए लेकिन जनभावना प्रभावित ना हो। क्येांकि ऐसा हुआ तो जो जागरूक नागरिक मोदी जी को पुन प्रधानमंत्री बनाने की योजना तैयार कर रहे हैं वो भी प्रभावित हो सकती है। क्येांकि अरावली टें्रड से जो आंदोलन चल रहा है उसे गलत नहीं कहा जा सकता। पिछले चार दशक से इन क्षेत्रों में पत्थर रेत का खनन बढ़ा है। जब प्रतिबंध था तो वो कैसे हो रहा है और अगर अनुमति थी तो यह क्यों नहीं देखा गया कि कही गलत प्रकार से तो खनन नहीं हो रहा है। धीरे धीरे अरावली को लेकर जो आंदोलन शुरू हुआ है उससे हर क्षेत्र में सक्रिय पर्यावरणविद तो जुड़ ही गए है जिन चार राज्यों दिल्ली राजस्थान हरियाणा और गुजरात से लेकर यह आंदोलन मुखर हुआ है उसके ३९ जिलों की जनता भी विरोध में मुखर हो सकती है।
एक खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पहाड़ियों की एक नई आधिकारिक परिभाषा को मंजूरी दे दी है, एक ऐसा फैसला जो दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक के कानूनी संरक्षण को नया रूप दे सकता है। बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार, 20 नवंबर को एक पीठ ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति द्वारा प्रस्तुत सिफारिशों को स्वीकार कर लिया, जिसमें उत्तर-पश्चिम भारत में 692 किलोमीटर की सीमा को परिभाषित करने के तरीके को मानकीकृत करने की मांग की गई थी।
नए मानदंडों के तहत, अरावली के भीतर किसी भी भू-आकृति में स्थानीय राहत से कम से कम 100 मीटर की ऊंचाई होनी चाहिए, जिसमें इसकी ढलान और आसपास के क्षेत्र शामिल हैं। कोर्ट ने केंद्र को डिटेल्ड साइंटिफिक मैपिंग करने और एक सस्टेनेबल माइनिंग प्लान बनाने का भी निर्देश दिया और आदेश दिया कि जब तक यह काम पूरा नहीं हो जाता, तब तक कोई नई माइनिंग लीज जारी न की जाए।
हालांकि, 100-मीटर की लिमिट ने चिंता पैदा कर दी है। पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि यह नियम निचले लेकिन इकोलॉजिकली जुड़े रिज के बड़े हिस्सों को बाहर कर सकता है, जो पहले सुरक्षा के दायरे में आते थे।
एक खबर के अनुसार द इंडियन एक्सप्रेस का हवाला देते हुए, कोर्ट को बताया गया कि एक इंटरनल फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (स्नस्ढ्ढ) के असेसमेंट में पाया गया कि 12,081 मैप की गई पहाड़ियों में से केवल 1,048 – सिर्फ 8.7श् – 100-मीटर बेंचमार्क को पूरा करती हैं। इसका मतलब यह हो सकता है कि जिसे आमतौर पर अरावली इलाका समझा जाता था, उसका लगभग 90श् कानूनी सुरक्षा खो सकता है।
कुल मिलाकर क्या करना है क्या नहीं यह तो आंदोलनकारी और सरकार को देखना है लेकिन मेरा मानना है कि पर्यावरण को किसी भी रूप में कम या ज्यादा प्रभावित करने वाली अरावली की पहाड़ियों के खनन के मुददो को फिलहाल जनहित में समाप्त किया जाए। क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में सरकार के समक्ष अन्य कई कठिनाईयां है। कुछ बड़े लोगों को फायदा पहुंचाने की व्यवस्था सबके लिए कष्टदायक ना बने इसे ध्यान रखा जाना जरूरी है।
(प्रस्तुतिः- रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
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