Date: 25/12/2024, Time:

घटनाओं को प्रचारित करने से पूर्व सोशल मीडिया जानकारी भी करे वरना पुलिस की त्वरित न्याय की प्रवृति रूकने वाली नहीं है, मॉब लिंचिंग ठीक नहीं है, समय आ गया है कि जनतंत्र और प्रभावी तंत्र किया जाए विकसित

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पीड़ित को न्याय मिले अपराधियों और अपराधों पर रोक लगे यह हर व्यक्ति चाहता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षो में हर बात को लेकर उभरने वाले जनाक्रोश के चलते आरोपों और कठिनाईयों तथा शायद जवाबदेही से बचने के लिए पुलिस एनकाउंटर या मुठभेड़ में मारने आदि का आसान रास्ता चुना जाने लगा है। वैसे भी बढ़ती मॉब लिंचिंग किसी भी रूप में सही नहीं कही जा सकती। लेकिन यह भी देखना होगा कि इस बढ़ती प्रवृति के लिए दोषी कौन है। सीधे सीधे पता चलता है कि जिम्मेदार अफसर या जनप्रतिनिधि जबतक ज्यादातर मामलों में घेराव और हंगामा नहीं होता तब तक सुनवाई आसानी से नहीं हो पाती है। खैर फिलहाल हम पुलिस द्वारा हर समस्या से बचने के लिए जो त्वरित न्याय की प्रक्रिया अपनाई जा रही है उसे किसी भी रूप में सही नहीं कहा जा सकता। न्याय देना उस पर सुनवाई करना अदालतों की जिम्मेदारी है। और उसे ही इस बारे में काम करने देना चाहिए। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि त्वरित न्याय पुलिस नहीं अदालत करें। अभी महाराष्ट्र के चर्चित बदलापुर प्रकरण के आरोपी अक्षय शिंदे के पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने को लेकर बॉबे हाईकोर्ट ने जो सवाल खड़े किए हैं उससे साफ लगता है कि पुलिस की कहानी पर उसे यकीन नहीं है। क्योंकि ठाणे जिले के बदलापुर के स्कूल में बच्चिों के यौन उत्पीड़न के आरोपी अक्षय शिंदे का अंत तो समाज में भयमुक्त वातावरण की स्थापना के लिए ऐसा ही होना चाहिए था लेकिन प्रायोजित तरीके से हिरासत में होने के बावजूद सिर में गोली क्यों मारी गई क्योंकि यह मुठभेड़ नहीं हो सकती। एक कमजोर सा व्यक्ति जो पुलिस की गिरफ्त में हो वो फायर कैसे कर सकता है। बदलापुर कांड के अलावा यूपी में सुल्तानपुर के अनुज एनकाउंटर मामले की भी जांच शुरू हुई है। इसी क्रम में मुझे लगता है कि पुलिस की ज्यादतियों को रोकने और आम आदमी को इंसाफ दिलाने के लिए जनतंत्र और प्रभावी तंत्र स्थापित होना वक्त की सबसे बड़ी मांग है। अब कोई कहे कि पुलिस की पुलिसिंग कौन कर सकता है तो यह विषय महत्वपूर्ण है क्योंकि बंदूकधारी लाठी डंडों के दम पर सड़कों पर कई मामलों में ज्यादती करने वाले पुलिसकर्मियों से आसानी से कोई उलझने को तैयार नहीं होता क्योंकि इनके द्वारा जब जिसकी चाहे इज्जत उतार दी जाती और हर समय ज्यादातर चार से पांच लोग साथ रहते हैं इसलिए किसी भी मामले में किसी को फंसा देना मामूली बात है और क्योंकि उच्च स्तर पर इनकी की गई शिकायतों पर जल्दी कार्रवाई नहीं होती है इसलिए हर आदमी इनसे उलझना नहीं चाहता है लेकिन जिस प्रकार से हाईकोर्ट द्वारा पुलिस ज्यादतियों के विरूद्ध कई मामलों में एक्शन लिया गया है उससे लगता है कि देर सवेर त्वरित न्याय पुलिस नहीं अदालतें करें की व्यवस्था लागू होने की संभावनाएं सामने आ रही हैं। और लगता है कि पुलिस की ज्यादतियों को रोकने के लिए जो प्रभावी तंत्र की जरूरत है वो अब विकसित होने का समय आ गया है। जहां तक पुलिस की पुलिसिंग कौन करे तो उस पर तो यही कहा जा सकता है कि पुलिस के सिपाही से लेकर उच्च अधिकारी तक सरकार और अदालतें कार्रवाई कर रही है उससे प्रोत्साहित होकर जागरूक नागरिक अब पुलिसिंग सोशल मीडिया के सहयोग से जल्दी ही करने लगेंगे। मेरा मानना है कि अपराध और अपराधियों के मामले में सोशल मीडिया से जुड़े लोग भी संयम बरतें और किसी भी खबर या बात को प्रचारित करने से पहले यह जरूरत देख लें कि उसमें सत्यता कितनी है क्योंकि कई मामले मनगढ़ंत झूठे व प्रायोजित होते हैं। ऐसी कई घटनाएं कुछ दिनों में सामने आ चुकी है मगर सोशल मीडिया में प्रचारित होने पर जनसमूह एकत्र होने लगता है और उसके दबाव में एनकाउंटर के नाम पर नागरिकों के अनुसार हत्या के मामले और जबरदस्ती निर्दोषों को फंसाने जैसी घटनाएं सामने आ रही हैं। कुल मिलाकर सिर्फ यही कहना है कि पुलिस की बढ़ती ज्यादतियां रोकने के लिए अब हमें भी मामलों पर चर्चा करने से पूर्व कुछ जागरूकता और संयम बरतने की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता।
(प्रस्तुतिः संपादक रवि कुमार बिश्नोई दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)

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