सुनियोजित विकास और सौंदर्यीकरण गांव हो या शहर सबका जरूरी है इस पर ध्यान देना वक्त की मांग भी कही जा सकती है क्योंकि इससे ही वहां के नागरिकों की सोच समझ में आती है मगर सौंदर्यीकरण और विकास के नाम पर अगर सिर्फ पैसों की बंदरबाट ही हो तो उसे सही नहीं कहा जा सकता। आज एक खबर पढ़ी कि चौराहों को आकर्षक बनाने की फिर बनी योजना। ऐसा करने वाले प्रशंसा के पात्र कहे जा सकते हैं लेकिन यह भी देखना जरूरी है कि आखिर किस चौराहों का कब सौंदर्यीकरण हुंआ और कितना खर्च हुआ। अब क्योंकि योजना बनाने वाले और इस पर नजर रखने वालों की इसमें कोई दिलचस्पी नजर नहीं आती। परिणामस्वरूप इसमें लाखों करोड़ों खर्च होते हैं उनकी कितनी अवधि थी यह कोई नहीं देखता। नए अफसर ने आते ही योजना बनाकर घोषित कर दी। जनता के टैक्स की कमाई किस प्रकार खर्च हो रही है जनप्रतिनिधि यह देखने को तैयार नहीं है। ऐसे मामलों में कुछ दशक पूर्व दिल्ली से प्रकाशित नवभारत समाचार पत्र की एक खबर में दर्शाया गया था कि जबलपुर में एक डीएम ने तालाब खुदवाया। दूसरे डीएम ने बाबू से पूछा कि इसकी जरूरत कहां थी तो उसने जवाब दिया कि हुजूर उन्होंने खुदवाया था आप बंद करा दो। मतलब कागजों में कुंआ खुद भी गया और बंद भी। ऐसा अब बहुत ज्यादा होने लगा बताते हैं। मैं किसी अच्छे काम का विरोधी नहीं हूं। सौंदर्यीकरण और विकास पर जो धन खर्च हो उसके लिए सांसद विधायकों को विशेष निगाह रखनी चाहिए क्योंकि सत्ताधारी हो या विपक्ष उसके नेताओं का यह फर्ज कि आम आदमी के टैक्स का दुरूपयोग कोई अधिकारी ना कर पाए। इसके लिए जो सौंदर्यीकरण की योजनाएं बनती है उसकी समीक्षा जनप्रतिनिधियों को करनी चाहिए और सीएम ऐसे निर्देश भी दें कि हर विकास कार्य को पहले जनप्रतिनिधियों के सामने रखें और फिर जो खर्च हो उसका भुगतान जनप्रतिनिधि के साइन से हो और पूर्व में इन चौराहों पर कितना खर्च हुआ था। पैसे की बर्बादी रोकना नेताओं का काम है क्योंकि कुछ अधिकारी अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने के लिए फर्जी योजनाएं बनाकर कागाजों पर भुगतान कर देते हैं। ऐसी चर्चा कई बार सुनने को मिलती है।
(प्रस्तुतिः- रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
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