जब भी कहीं चार दोस्त या रिश्तेदार व परिचित इकटठा हुए नहीं कि कुशलक्षेम के बाद अपनों में से कोई तरक्की कर गया तो यह विषय बातचीत का मुददा बन जाता है कि जरा सी तरक्की या दो पैसा क्या कमा लिए तो पता नहीं अपने आप को क्या समझने लगाहै या घमंडी होने लगा है। बात तो मीठी मीठी करेगा काम आएगा नही। इससे सहयोग की बात सोचना गलत है। अब जो इसे लेकर विचार करते हैं हो सकता है उनकी सोच सही हो लेकिन मुझे लगता है कि ज्यादातर व्यक्ति काम निकालने और फिर मदद करने वालो को भूल जाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगते हैं। वो ठीक नहीं है। निष्पक्ष होकर सोचें तो यह वो भी जानबूझकर नहीं करते होंगे समय का अभाव आर्थिक तंगी और परिवार की समस्याएं सामने वाले के सहयोग को भूला देते हैं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।
लेकिन यह भी सही है कि मां बाप बच्चों को यह सोचकर पालते हैं कि भविष्य में वो उनका सम्मान बढ़ाएंगे परिवार को ऊंचाईयों की तरफ ले जाएंगे और समाज में अच्छा स्थान प्राप्त कर हमारे बुढ़ापे को संभालने में सहयोग करेंगे। यह भावना कहां तक पूरी होती है यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि मीडिया में जो पढ़ने को मिलता है उससे यही अहसास होता है कि जिनके बच्चे उनका ध्यान रखते हैं उनके भगवान का आशीर्वाद खूब मिलता है क्योंकि यह भी पढ़ने को मिलता है कि संपत्ति नाम कराने के बाद बुजुर्गों को दरकिनार कर दिया। जो भी हो घरेलू मामले और रिश्तेदारी बात छोड़ दे तो भी एक बात सभी को ध्यान रखनी होगी किसी को कुछ लेना है तो देना भी होगा। यह व्यवस्था अब नहीं चलेगी कि हमारे घर आओगे तो क्या लाओगे और बुलाओगे तो क्या दोगे। सम्मान और व्यस्था ऐसी ही कि किसी को सोचना ना पड़े। सहयोग की जब चर्चा चलती है तो पता चलता है कि हर व्यक्ति किसी ना किसी से उसकी क्षमता के अनुसार मदद तो चाहता है लेकिन उसके लिए कुछ भी करने की नहीं सोचता। एक बार यूपी में योगेंद्र नारायण मुख्य सचिव थे तो संपादकों व पत्रकारों के हित में सबसे ज्यादा कार्य करने वाले समाचार पत्र संगठन आईसीना के अध्यक्ष शिवशंकर त्रिपाठी के साथ उनके यहां जाना हुआ। उन्होंने काफी सम्मान भी दिया लेकिन एक सज्जन त्रिपाठी के साथ किसी काम से गए थे और उनकी समस्या का समाधान करा दिया तो वह बोले कि पंडित जी आपको देर लगेगी मैं निकल जाता हूं। उसने यह नहीं सोचा कि वह उन्हें साथ लाया था तो वह कैसे जाएंगे। कई बार देखने को मिलता है कि समाज में प्रमुख व्यक्ति जो राजनीति में अपना स्थान बना लेते हैं छोटे से बड़े लोगों तक उनसे काम तो कराना चाहते है लेकिन बदले में अपनी सोच को शून्य बना लेते हैं। मजबूर बेसहारा और गरीब के बारे में यह सोच सकते हैं कि वह तो वैसे ही परेशान रहता है लेकिन जब उद्योगपति व्यापारी सत्ता में पहुंच रखने वालों से अपने काम तो करा लेते हैं लेकिन उसके बाद उसे भूल जाते हैं। वो यह नहीं सोचते है कि जिसने काम कराया आगे चलकर करने वाला भी कुछ काम बता सकता है। मैंने देखा है कि कई बार असरदार लोगों से अपना काम तो सब निकाल देते हैं लेकिन जब वह कुछ कहता है तो सब चुप्पी लगा जाते हैं और सिफारिश करने वालो लाखों के नीचे आ जाता है। मेरा मानना है कि अगर आप किसी से कोई सहयोग ले रहे हैं तो यह भी ध्यान रखें कि उन्हें भी किसी का अहसान उतारना होगा। अगर आपका काम सही है तो भी और अगर आपका करोड़ो का मुनाफा हो रहा है तो लाख रूपये सहयेाग देने वालों को देने में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए। ऐसे मामलों में जनहित में सक्रिय व्यक्ति को कभी कभी बड़े नुकसान भी उठाने पड़ते हैं। सहयोग लेना है तो मदद करने वाले का सहयोग करने में पीछे नहीं होना चाहिए तभी समाज में व्यवस्था आगे चल पाएगी वरना तो हम यही कहते रहेंगे कि बड़ा आदमी बन गया है तो घमंड आ गया है। हमारी मदद करने वाले धीरे धीरे कम होते चले जाएंगे जिसे उचित नहीं कह सकते।
पांच दशक पूर्व मेरे बुआ के बेटे की शादी थी। हमारे घर की दीवार भी मिली थी। उसमें मुझे या मेरे परिवार को नहीं बुलाया गया जबकि सारे गांव को बुलाया गया। उसके ढाई दशक बाद जब उसकी बेटी की शादी हुई तो वह २०० किमी चलकर कार्ड देने आया और मजबूरीवश ना पहुंचने पर कहते घूमता था कि देखो कितना घमंड आ गया सगी भतीजी की शादी में नहीं आया। अब आप कुछ समझ सकते हैं कि ना तो मैं उसे तब कुछ ले रहा था ना २५ साल बाद कुछ दे रहा था। भगवान का हाथ पकड़ने पर सब बुराई समझने लगते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। अगर सोच को हर समय एक जैसा रखें तो। हमें यह समझना होगा कि हमारी मदद करने वाले का एक सर्किल है। उसमें उसे लोगेां की मदद करनी होती है और उसमें पैसा खर्च होता है इसलिए अपना काम कराकर उसे अपने लाभ का कुछ हिस्सा देना चाहिए।
(प्रस्तुतिः- रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
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