वैसे तो हर व्यवस्था और सोच में समायानुकुल परिवर्तन होना सामान्य सी बात है। लेकिन वर्तमान राजनीति में कई बिंदुओं में जो सोच पनप रही है वो एक प्रकार से अगर सोचें तो संविधान के तहत निर्धारित कार्यक्रमों और योजनाओं की अवहेलना भी कह सकते हैं। तथा नेताओं और कार्यकर्ताओं में इसको लेकर असंतोष पनप ही रहा है।
क्योंकि लगभग तीस साल तक सरकारी पदों पर रहकर जीवन में पूर्ण इंजॉय करने वाले अफसरों को सेवानिवृति के बाद भी उच्च आम आदमी को मिल सकने वाले पदों पर बैठाकर कार्यकर्ता और नेताओं के अधिकारों का हनन ही कह सकते हैं। अभी खबर चली कि यूपी सरकार में मुख्यधारा में शामिल और चर्चित रहे नवनीत सहगल को प्रसार भारती बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया। तो पूर्व में भी कई आईएएस और आईपीएस को उन पदों पर विराजमान किया गया जो राजनीतिक दलों में रहकर मेहनत करने वाले कार्यकर्ताओं को मिल सकते थे। अब पिछले कुछ वर्षों से एक नया चलन देखने को मिला जिसे लेकर भले ही पार्टी कार्यकर्ता अनुशासन के चक्कर में ना बोलते हो लेकिन दिखाई दे रहा है कि देशभर के जिलों में कितने ही मंत्रालयों की कमेटियां है जिनमें हर जिले में राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं को नियुक्ति दी जा सकती है मगर जिस स्तर पर यह काम होना चाहिए होता नजर नहीं आ रहा। फिल्म अभिनेताओं और मशहूर हस्तियों को बड़े बड़े सम्मान देने के अतिरिक्त नियुक्तियों के साथ ही राज्यसभा और लोकसभा में भेजा जाने वाला लगा है। जिस लेजेस्टिव के आंकड़ों के अनुसार सांसद हंसराज हंस, सनी देओल, तृणमूल कांग्रेस के कई ऐसे सांसद और विधायक है जिन्होंने एक सही मात्रा में भी अपने कार्यकाल में ना तो जनहित में सवाल उठाए और ना ही अपनी भागीदारी संसद और विधायक के कार्यक्रमों में उठाए गए। जो सीधा सीधा सुविधाएं तो भुगतनी है जनहित से मुंह मोड़े रखना है सोच का ही परिचायक है।
प्रधानमंत्री कई बड़े निर्णय राजनीति में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने और समाज व राष्ट्रहित में ले रहे हैं। मेरा मानना है कि सांसद और विधायक या तो अपनी लोकप्रियता पर जीतते हैं या पार्टी के जनाधार पर। ऐसे में बड़े लोगों को लोकसभा राज्यसभा विधान सभा विधान परिषद में ना भेजने के साथ साथ सेवानिवृत नौकरशाहों की जनहित के पदों पर दी जाने वाली तैनाती आदि पर रोक लगाने और उनकी जगह निष्ठावान समर्पित कैडर के कार्यकर्ताओं को मौका देने का मार्ग प्रशस्त करने हेतु एक ऐसा नियम बनाएं जिसके बाद पहले से ही महिमा मंडित साधन सुविधा संपन्न चेहरों की सरकार के मुख्य पदों पर तैनाती में रोक लग सके। क्योंकि कहीं ना कहीं बड़े लोगों को मनोनयन करने की प्रक्रिया राजशाही को कहे अनकहे रूप में बढ़ावा दे रही है। इसके चलते कभी भी आम आदमी और गरीब व्यक्ति की सोच आसानी से मुखर होना और उन्हें मौका मिलना संभव नहीं लगता है।
मैं किसी भी मशहूर संपन्न व्यक्ति का व्यक्तिगत रूप से विरोधी नहीं हूं लेकिन मेरा यह मानना है कि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को उसका अधिकार व मौका मिलना चाहिए।
बड़े लोगों का विभिन्न पदों व लोकसभा व विधानसभा में मनोनयन राजशाही सोच को दे रहा है बढ़ावा! क्या प्रसार भारती बोर्ड के लिए कोई जनप्रतिनिधि ?
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