लखनऊ 29 जुलाई। अखिलेश यादव ने एक ब्राह्मण चेहरे को समाजवादी पार्टी के विधायक दल का नेता बना कर सबको चौंका दिया है. माता प्रसाद पांडेय पार्टी के पुराने नेता हैं. वे यूपी विधानसभा के अध्यक्ष रहे. तब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री हुआ करते थे. पांडे को मुलायम सिंह यादव का करीबी नेता माना जाता था. वे उनकी सरकार में मंत्री रहे. रविवार को लखनऊ में पार्टी ऑफिस में विधायकों की बैठक हुई. एजेंडा अखिलेश यादव की जगह नया नेता चुनने का था. लेकिन बैठक में फैसला अखिलेश यादव पर छोड़ दिया गया.
समादवादी पार्टी के अंदर और बाहर किसी दलित या पिछड़े विपक्ष का नया नेता बनाए जाने की चर्चा थी. कहा गया कि PDA की बदौलत पार्टी ने लोकसभा में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है. तो इस सोशल इंजीनियरिंग को आगे भी जारी रखा जाए. अखिलेश के PDA का मतलब पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक माना जाता है. इसी सामाजिक समीकरण के कारण पार्टी ने लोकसभा चुनाव में 37 सीटें जीत ली.
रेस में थे ये चार नाम पर सभी हो गए बाहर
विपक्ष के नए नेता के तौर पर चार नाम रेस में थे. इंद्रजीत सरोज, तूफानी सरोज, राम अचल राजभर और शिवपाल यादव. चाचा होने के कारण शिवपाल यादव सबसे पहले रेस से बाहर हो गए. अखिलेश यादव ने उन्हें बुला कर कह दिया जब सरकार बनेगी आप मंत्री रहेंगे. राम अचल राजभर और इंद्रजीत सरोज दोनों बीएसपी से आए हैं. किसी जमाने में मायावती के करीबी रहे. तय हुआ कि पार्टी के समर्पित चेहरे को ही विधायक दल का नेता बनाया जाए. इस आधार पर दोनों के नाम कट गए. अब बचे तूफानी सरोज. तीन बार के सासंद रहे तूफानी सरोज की बेटी प्रिया इस बार एमपी बन गई है. परिवारवाद के नाम पर तूफानी भी बाहर हो गए.
बताते चले कि उत्तर प्रदेश विधानसभा का मानसून सत्र 29 जुलाई से शुरू होने जा रहा है। इससे पहले मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी ने विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष की घोषणा कर दी है। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने वरिष्ठ नेता और इटवा से सपा विधायक माता प्रसाद पांडेय को नेता प्रतिपक्ष बनाया है। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी ने मुख्य सचेतक समेत अन्य पदों पर भी नामों की घोषणा कर दी है। बता दें माता प्रसाद पांडेय कई बार विधायक रह चुके हैं। साथ ही सपा सरकार में विधानसभा अध्यक्ष भी रह चुके हैं।
पुराना अनुभव दोहराने की कोशिश
दरअसल, 2012 के यूपी विधानसभा चुनावों में जब समाजवादी पार्टी ने अकेले दम पर 224 सीटें जीतने का कारनामा किया था, तब यह उसके सोशल इंजीनियरिंग का ही करिश्मा माना गया था। उस समय समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में अखिलेश यादव ने ब्राह्मणों को लुभाने का काम शुरू किया। ब्राह्मण मतदाता इसके पहले 20007 में बहुजन समाज पार्टी के साथ जाकर मायावती को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचा चुके थे, लेकिन कथित तौर पर मायावती के शासनकाल में भी ब्राह्मणों की जमकर उपेक्षा हुई, जिससे नाराज ब्राह्मण किसी दूसरे ठिकाने की तलाश कर रहे थे।
इसी बीच राजनीति की नई पौध बनकर उभर रहे अखिलेश यादव ने मजबूती से ब्राह्मणों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की। उस समय उनकी साफ स्वच्छ विकासवादी छवि ने इसमें मदद की और उन्हें इसमें सफलता भी मिली। ब्राह्मणों ने सपा का जमकर साथ दिया। इसका परिणाम हुआ कि 2012 में सपा अकेले दम पर सत्ता में पहुंचने में सफल हो गई। अखिलेश अब अपना वही पुराना फॉर्मूला 2027 के चुनावों में भी आजमाना चाहते हैं।
भाजपा में अंतर्कलह
ध्यान देने की बात है कि अखिलेश यादव यह चाल ऐसे समय में चल रहे हैं जब भाजपा अपनी अंतर्कलह से जूझने में व्यस्त है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्रियों के बीच कथित टकराव के बीच भाजपा संकट में दिखाई दे रही है। उसका जातीय गणित और हिंदुत्व का कार्ड भी गड़बड़ाया हुआ है। माना जा रहा है कि यदि उसने समय रहते इन संकटों से मुक्ति नहीं पाई, तो उसे विधानसभा चुनावों में संकट का सामना करना पड़ सकता है।
लोकसभा चुनावों में राजपूत मतदाताओं के बीच भाजपा को लेकर असमंजस देखी गई थी। भाजपा को इसका नुकसान भी हुआ था। लेकिन इसी के साथ यह भी कहा जाता रहा है कि यूपी भाजपा के कुछ ताकतवर नेता ब्राह्मणों के खिलाफ रहे हैं। लोकसभा चुनावों में विकल्प की कमी के कारण ब्राह्मण भाजपा के साथ ही बने रहे थे, लेकिन यदि समाजवादी पार्टी विधानसभा चुनावों में उन्हें साधने में सफल रही, तो भाजपा के इस किले में भी सेंध लग सकती है। माता प्रसाद पांडेय को नेता प्रतिपक्ष बनाकर अखिलेश यादव ने यही संकेत देने की कोशिश किया है। यदि सपा का यह कार्ड काम किया तो 2027 में विधानसभा की लड़ाई रोचक हो सकती है।