जब किसी के औलाद नहीं होती तो उसके द्वारा क्या क्या जतन किए जाते हैं वो किसी से छिपा नहीं है और जब बच्चा पैदा हो जाता है तो उसे पालने में कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं यह हर परिवार का मुखिया जानता है। ऐसे में चंडीगढ़ विवि से सिविल इंजीनियििरंग में अंतिम वर्ष के छात्र हरीश जो 2013 में रक्षाबंधन के दिन अपनी बहन से बात करता है और कुछ दिन बाद चंडीगढ़ विवि में वेटलिफिटंग प्रतियोगिता में हिस्सा लेने की तैयारी करता है ऐसी प्रतिभावान संतान को मां बाप कितना प्यार करते होंगे। उसके बावजूद 2013 से 30 वर्षीय 100 प्रतिशत दिव्यांग बेटे जो सिर्फ सांस लेता है बाकी कुछ नहीं कर सकता इसलिए उसे जीवन के सुखों के उपयोग करने हेतु बनाने के लायक करते उम्मीद खो चुके मां बाप द्वारा किन परिस्थितियों में किस परिस्थिति में इच्छा मृत्यु की मांग की गई होगी यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है।
एक माता-पिता के लिए उनके बच्चे ही सब कुछ होते हैं, बच्चों को खरोंच भी आ जाए तो मां-बाप पूरी दुनिया से लड़ जाते हैं, लेकिन सोचिए ऐसी क्या मजबूरी होगी कि कोई मां-बाप अपने 30 साल के जवान बेटे के लिए मौत की मांग कर रहे होंगे. जिस बेटे को बचपन से पाला-पोषा, जिसे बुढ़ापे का सहारा समझा हो उसी बेटे के लिए मौत की मांग करना मां-बाप के लिए कितना पीड़ादायक होगा. दरअसल ये कहानी है दिल्ली के एक परिवार की, 62 साल के अशोक राणा अपने 30 साल के जवान बेटे के लिए इच्छा मृत्यु की मांग कर रहे हैं. परिवार के इस दर्दनाक फैसले के पीछे 11 सालों का संघर्ष है. रोज अपने सामने बेजान पड़े बेटे को देखना किसी भी मां-बाप के लिए अभिशाप जैसा है. लेकिन अब अशोक राणा और उनकी पत्नी की हिम्मत भी जवाब दे रही है, अब उनसे अपने बेटे का दर्द नहीं देखा जा रहा लिहाजा उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट से बेटे के लिए पैसिव यूथेनेशिया यानी निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की मांग की है.
11 साल का अंतहीन संघर्ष
साल 2013 में हुए हादसे से पहले अशोक राणा और उनके परिवार की जिंदगी ठीक-ठाक चल रही थी. उनका बेटा हरीश मोहाली में चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी से बीटेक की पढ़ाई कर रहा था. हरीश ने आगे की जिंदगी के लिए हजारों सपने देखे थे, दिल में कई ख्वाब थे. हरीश ने सोचा था कि बीटेक की पढ़ाई पूरी कर वो अपने माता-पिता का सहारा बनेंगे, लेकिन साल 2013 में एक दिन उनके सारे सपने चकनाचूर हो गए, एक हादसे ने हरीश और उनके पूरे परिवार की जिंदगी को हमेशा-हमेशा के लिए पूरी तरह से बदल दिया. हरीश अपने पीजी में चौथे मंजिल से नीचे गिर गए, इस हादसे में उनके सिर में गंभीर चोट आई जिसकी वजह से वो बीते 11 साल से बिस्तर पर बेजान पड़े हैं. हरीश को ट्यूब के जरिए लिक्विड फूड दिया जा रहा है और वो 100 फीसदी अपंग हो चुके हैं.
कमाई से ज्यादा इलाज में खर्च हुए रुपये
हरीश के बारे में बात करते हुए उनके पिता अशोक राणा बेहद दुखी नजर आते हैं, उनके शब्दों में 11 साल की पीड़ा साफ झलकती है. अशोक राणा का कहना है कि जब हरीश को चोट लगी तब उन्होंने पीजीआई चंडीगढ़, दिल्ली में एम्स, राम मनोहर लोहिया अस्पताल, लोक कल्याण और फोर्टिस में भी इलाज कराया लेकिन हरीश की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. शुरुआत में करीब एक साल हरीश की देखभाल और इलाज के लिए घर पर 27 हजार रुपये महीने पर नर्स भी रखी वो भी तब जब उनकी खुद की तनख्वाह 28 हजार रुपयेध्महीना थी. नर्स के खर्च के आलावा फिजियोथैरेपी के लिए भी 14 हजार रुपये देने पड़ते थे, जो कि लंबे समय तक अशोक राणा और उनके परिवार के लिए बेहद मुश्किल था. आखिरकार आर्थिक तंगी के चलते उन्होंने घर पर खुद ही हरीश की देखभाल करने का फैसला लिया.
इलाज के चलते बेचा पुश्तैनी घर
हरीश के इलाज के लिए पिता अशोक राणा ने वो सब कुछ किया जो एक पिता को करना चाहिए था. उन्होंने दक्षिणी-पश्चिमी दिल्ली में स्थित अपना 3 मंजिला मकान तक बेच दिया. इस मकान में उनका परिवार साल 1988 से रह रहा था, इस घर से जुड़ी कई यादें थीं लेकिन उन्होंने अपने बेटे के इलाज के लिए ये कुर्बानी देनी भी मंजूर की. टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए अशोक राणा बताते हैं कि उनके इस घर तक एंबुलेंस की पहुंच नहीं थी और हरीश की हालत ऐसी थी कि कभी भी किसी भी वक्त एंबुलेंस की जरूरत पड़ सकती थी लिहाजा उन्होंने घर बेचने का फैसला किया जिससे बेटे के इलाज में कोई रुकावट ना आए.
बेटे के लिए क्यों मांगी इच्छा मृत्यु?
अशोक राणा अब 62 साल के हो चुके हैं, उनकी पत्नी निर्मला देवी भी 55 साल की हैं. ऐसे में बढ़ती उम्र के कारण हरीश की देखभाल करना उनके लिए मुश्किल हो रहा है. अशोक राणा अब रिटायर हो चुके हैं, उनकी पेंशन महज 3 हजार रुपये है. छोटा बेटा आशीष अब एक निजी कंपनी में नौकरी कर रहा है जिससे घर का खर्च चल पा रहा है. ऐसे में हरीश के इलाज का खर्च उठाना भी उनके लिए बेहद मुश्किल है. यही नहीं 11 साल से चल रहे इलाज, लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी हरीश की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ ऐसे में परिवार चाहता है कि हरीश को जीवन तो ना सही लेकिन मौत गरिमामयी मिले.
हाई कोर्ट ने क्यों ठुकराई याचिका?
दिल्ली हाई कोर्ट ने अशोक राणा की याचिका पर सुनवाई करते हुए मामले को चिकित्सा बोर्ड को सौंपने से इनकार कर दिया है. जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद का कहना है कि हरीश किसी भी जीवन रक्षक मशीन पर नहीं है वो बिना किसी अतिरिक्त बाहरी सहायता के जीवित है. उन्होंने कहा कि “अदालत माता-पिता के प्रति सहानुभूति रखती है, लेकिन याचिकाकर्ता असाध्य रूप से बीमार नहीं है, इसलिए यह अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती है.” जस्टिस प्रसाद ने कहा कि मरीज की ये याचिका पैसिव यूथेनेशिया के लिए ना होकर एक्टिव यूथेनेशिया यानी सक्रिय इच्छा मृत्यु की मांग करती दिख रही है जो कि भारत में कानूनी तौर पर स्वीकार्य नहीं है.
मामला क्योंकि कोर्ट से संबंध है इसलिए टिप्पणी करना ठीक नहीं है मगर सही प्रकार से जीवन का आनंद उठाने में असमर्थ हरीश को सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए इच्छा मृत्यु दे ही दी जानी चाहिए। मेरा तो मानना है कि इसके मां बाप अशोक राणा व मां निर्मला देवी को राष्ट्रपति के यहां प्रार्थना करनी चाहिए। क्योंकि ऐसी स्थिति में हरीश के लिए जीवन के मुकाबले मौत ज्यादा आरामदायक सिद्ध हो सकती है। इसलिए मजबूर माता पिता द्वारा इच्छा मृत्यु की मांग भी शायद की गई है।
(प्रस्तुतिः संपादक रवि कुमार बिश्नोई दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
31 वर्षीय 100 प्रतिशत दिव्यांग हरीश को मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए दी जाए इच्छा मृत्यु की अनुमति
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