जीएसबीएम मेडिकल कॉलेज के बाल मनोवैज्ञानिक विभाग द्वारा ढाई से आठ साल के 40 बच्चों की कराई गई स्टडी रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि मोबाइल गेम्स और रील्स का चस्का बच्चों को मां बाप के प्यार से दूर कर रहा है और बिना इसके उन्हें खाने में भी मजा नहीं आता। जिस कारण मां बाप को उन्हें खाना खिलाने के लिए मोबाइल दिखाना पड़ता है।
सर्वेक्षण रिपोर्ट के बारे में तो मुझे कुछ नहीं कहना लेकिन बच्चों की इस सोच के लिए कौन जिम्मेदार है यह बात हम सबको सोचनी होगी और हमारे नौनिहाल हमारे प्यार व खाने से दूर क्यों हो रहे हैं तथा मां बाप को उन्हें भोजन कराने के लिए पापड़ क्यों बेलने पड़ते हैं। अब इस बात की समीक्षा और विचार करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। क्योंकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि गेम और रील्स के चस्के में बच्चों में चिडचिड़ापन और गुस्सा बढ़ रहा है। कई अभिभावकों का यह मत भी है कि जब तक बच्चों को मोबाइल ना दो वो खाना नहीं खाते। तो कुछ का यह भी कहना है कि मोबाइल रील्स गेम्स देखते हुए ही बच्चों को खाना खाना अच्छा लगता है। कई बाल मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मोबाइल के चक्कर में बच्चों की भूख बढ़ रही है जिससे उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ रहा है। अगर ध्यान से देखें तो यह सभ्ीा बाते बच्चों के लिए लाभदायक अथवा ठीक नहीं है। भविष्य में चलकर इसका उन्हें नुकसान भी उठाना पड़ेगा और सबसे ज्यादा कठिनाई अभिभावकों को झेलनी होगी। अब अगर यह सोचें कि इन सभी बातों के लिए जिम्मेदार कौन है तो यह साफ है कि कोई और नहीं जिस बात की लोग शिकायत कर रहे हैं और अभिभावक चिंतित हैं उसके लिए परिवार के लोग ही पूरे तौर पर दोषी है क्योंकि बच्चा पैदा होते ही तो मोबाइल रील्स और गेम्स के बारे में जानता नहीं है। शुरू शुरू में अपने को प्रगृतिशील और एडवांस सोच का दर्शाने हेतु और बच्चों से छुटकारा कुछ समय पाने के लिए खुद मां बाप ही मोबाइल बच्चों को पकड़ा देते हैं और कई जगह तो बड़ी शान से बताते हैं कि हमारा बच्चा तीन साल का है मोबाइल खूब चला लेता है। इस हिसाब से इसके लिए मां बाप ही दोषी है क्योंकि वो ही किसी ना किसी रूप में बच्चों को मोबाइल की आदत डाल रहे हैं।
अब अगर दूसरे तरीके से सोचें तो समाज में आगे बढ़ने की दौड़ नई तकनीकी अपनाने की कोशिश के चलते परिवार का कोई भी सदस्य इस आधुनिक व्यवस्था से आसानी से बच नहीं सकता। ऐसे में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि ना मां बाप का कसूर है ना बच्चों का। सब समय कम होने का ही कसूर कह सकते हैं कि कई प्रकार की मजबूरी के चलते ज्यादातर मामलों में बच्चों के हाथ में मोबाइल पकड़ाया जाता है।
अब यह बात जगजाहिर है और पूरी दुनिया जानती है कि अगर समाज में सबके साथ कंधा मिलाकर चलना हेै तो नई तकनीकी से दूर भागने से काम नहीं चल सकता। हमें मोबाइल भी अपनाना होगा और उसके खेल भी। सिर्फ ऐसी व्यवस्था जरूर करनी पड़ेगी कि बच्चें गुमराह करने वाले कार्यक्रमों से बचकर रहे और बच्चों को शैक्षिक और मनोरंजक कार्यक्रम लगाकर ही मोबाइल दिया जाए। जहां तक बात मोबाइल की है तो वो इस समय सबसे बड़ी मांग है। बच्चें भी अपनों के प्यार और खाने से दूर ना रहे इसके लिए अभिभावकों को यह तय करना चाहिए कि कब बच्चे को मोबाइल देना है और कितना उसे चलाना आना चाहिए। जहां तक इससे होने वाले नुकसान का सवाल है तो यह किसी से छिपा नहीं है कि जरूरत से ज्यादा हर काम किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं होता और उसके नुकसान हजार होते है। मोबाइल की लत का सवाल है तो लत तो खाने सोने खेलने की भी ज्यादा बुरी है तो फिर सोशल मीडिया और मोबाइल को क्यों बदनाम किया जाए।
दोस्तों कम समय में कम खर्च करके हम पूरी दुनिया की जानकारी प्राप्त कर अपने बच्चों को दे सकते है। इससे व्यापार नौकरी और कठिन जानकारियां मिनटों में प्राप्त की जा सकती है इसलिए जिसे हम लत समझते हैं वो नागरिकों के लिए सबसे बड़ी मांग है। अब हमें खाना खाते समय वाहन चलाने के दौरान और जरूरी काम निपटाते हुए मोबाइल से दूर रहे। ना सोशल मीडिया समस्या और ना मोबाइल ना उस पर आने वाले रील्स। आप चौकसी बरतिए बच्चा खुशहाल रहेगा।
(प्रस्तुतिः संपादक रवि कुमार बिश्नोई दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
हम हर चीज के लिए अपने बच्चों मोबाइल और सोशल मीडिया को ही क्यों दोषी ठहराते हैं
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