गांव देहात हो या शहर बच्चे हो या बड़े मेले और समारोह सबको पसंद आते हैं और हर कोई चाहता है कि कहीं ना कहीं ऐसे मनोरंजक और कुछ समय के लिए तनाव से मुक्त करने के आयोजन होते रहें। इतना ही नहीं जब कहीं ऐसे कार्यक्रम होते हैं तो लोग दूर दूर से उसमें शामिल होने के लिए आते हैं तो फिर अपने कस्बा या जनपद के नाम से किसी महोत्सव का आयेाजन हो जिसमें क्षेत्र की उपलब्धि को प्रदर्शित किया जाना हो तो उसके कहने ही क्या है। वर्तमान समय में देशभर में दिल्ली महोत्सव यूपी महोत्सव आदि के आयोजन तहसील या जिला मुख्यालय के नाम से होने की खबरें पढ़ने सुनने को मिल रही हैं। जिनसे उत्साह बढ़ता है। लगता है इसमें हर वर्ग और जाति के व्यक्ति की भागीदारी तय हो। लेकिन देखने में आ रहा है कि हर व्यक्ति को उत्साह से भर देने वाले महोत्सव तो हो रहे हैं लेकिन आम जनमानस के नाम पर होने वाले इन कार्यक्रमों में कुछ गिनती के बड़े लोगों और धन्नासेठों व आयोजकों के चाटुकारों के अलावा ना तो किसी और को इसमें सहभागिता का मौका मिलता है और ना ही कोई इस बारे में सलाह मशविरा करता है। जितना पता चलता है उसके हिसाब से आर्थिक रूप से कमजोर जिस वर्ग को सरकार आगे लाना चाहती है उसका इससे दूर दूर तक मतलब नजर नहीं आता है। इसमें होने वाले कार्यक्रमों में हजारों रूपये के टिकट और प्रवेश कार्ड रख दिए जाते हैं जिससे मध्यम दर्जे का व्यक्ति भी अंदर जाने की बात तो दूर उधर जाने की भी नहीं सोचता। जिस कारण से गरीब आदमी के बच्चे जिन्हें इन मेलों में निशुल्क रूप से प्रवेश दिया जाना चाहिए वो वहां तक नहीं पहुंच पाते। मेरा मानना है कि ऐसे आयोजन सिर्फ मध्यम और गरीब दर्जे के व्यक्ति को ध्यान में रखकर किए जाएं क्येांकि बड़े उद्योगपति धनवान तो अपने मनोरंजन के लिए विदेशों तक जा सकते हैं लेकिन जो रोज खाने कमाने वाला व्यक्ति है वो कहीं बाहर नहीं जा सकता और घर में उसे प्रवेश नहीं मिलता तो आखिर वो डिप्रेशन में नहीं जाएगा तो क्या होगा। इसलिए महोत्सव व समारोह गांव के मुख्यालयों पर भी हो उसमें हर व्यक्ति का प्रवेश हो सिर्फ पैसे वालों और चाटुकारों का नहीं। तभी इन महोत्सवों का कोई मतलब है। वरना रहीशों के लिए रोज आयोजन होते हैं।
(प्रस्तुतिः रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
महोत्सव तो हों मगर आम आदमी के लिए
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