नई दिल्ली 16 जुलाई। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को उनकी ‘जमीन के बदले जमीन’ संबंधी नीतियों के प्रति आगाह करते हुए कहा है कि ऐसी योजनाएं दुर्लभतम मामलों में ही लागू की जानी चाहिए.
जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने आगे कहा कि राज्य सरकार के भूमि अधिग्रहण का विरोध करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आजीविका के अधिकार से वंचित करने की दलील टिकने वाली नहीं है. बेंच ने हरियाणा सरकार की ओर से दायर मुकदमे को सभी राज्यों के लिए आंखें खोलने वाला बताया.
बेंच हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण के संपदा अधिकारी और अन्य की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के 2016 के उस फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसमें विस्थापितों के पक्ष में निचली अदालत के आदेशों को बरकरार रखा गया था.
जस्टिस पारदीवाला ने 87 पृष्ठों के फैसले में लिखा है, यदि किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि की जरूरत होती है तो कानून सरकार को भूमि अधिग्रहण कानून या किसी अन्य राज्य अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार अधिग्रहण की अनुमति देता है। जब किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहण होता है तो जिस व्यक्ति की भूमि ली जाती है, वह कानून के सिद्धांतों के अनुसार उचित मुआवजे का हकदार होता है।
अधिग्रहण से बेसहारा होने वाले का पुनर्वास
न्यायालय ने इस पर जोर दिया कि सामान्य तौर पर पुनर्वास केवल उन व्यक्तियों के लिए होना चाहिए जो भूमि अधिग्रहण के परिणामस्वरूप निवास या आजीविका के नुकसान के कारण बेसहारा हो गए हों। दूसरे शब्दों में, उन लोगों के लिए जिनका जीवन और आजीविका भूमि से आंतरिक रूप से जुड़ी हुई है। इस मामले में विवाद इससे संबंधित था कि क्या भूस्वामियों को हरियाणा सरकार की ओर से जारी 1992, 2016 की संशोधित योजना, जिसे 2018 में संशोधित किया गया था, के अनुसार भूखंड आवंटन का अधिकार होगा।
कानूनी अधिकार के रूप में दावा नहीं
प्रतिवादी-भूस्वामियों ने कहा कि वे 1992 की नीति के अनुसार भूखंड आवंटन के लिए जरूरी राशि देने को तैयार हैं। अपील का निपटारा करते हुए पीठ ने कहा, प्रतिवादी कानूनी अधिकार के रूप में दावा करने के हकदार नहीं हैं। उन्हें विस्थापितों के रूप में भूखंड 1992 की नीति में तय मूल्य पर ही दिए जाने चाहिए। वे अधिक से अधिक 2016 की नीति का लाभ लेने के हकदार हैं।