भले ही पैसे और सुविधाओं ओैर पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव ने गुरू शिष्य परंपरा को प्रभावित किया हो और कई बार समाचारों में गुरूओं के बारे में गलत समाचारों से उनकी प्रतिष्ठा पर सवाल उठ रहे हो लेकिन बिना गुरू ज्ञान नहीं तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। गुरूओं की गरिमा और आस्था और समर्पण खत्म नहीं हो सकता। बदलाव कितने ही होते रहे। पुराने समय में हम साधु संत और गुरूकुल में पढ़ाने वाले महानुभावों के साथ किसी से सीखते थे तो उसे गुरू का दर्जा दिया करते थे। और हमेशा उनके प्रति सम्मान हमारे मन में समाया रहता था। अगर बात करें ज्ञान प्राप्त करने की तो बच्चा जब जन्म लेता है तो सबसे पहली गुरू उसकी मां और दूसरा गुरू पिता होता है क्योंकि वो उसे अंगुली पकड़कर चलना सिखाता है तीसरे गुरू अन्य परिजन होते हैं उनसे बच्चो समस्याओं के समाधान ऑैर खुद को स्वतंत्र बनाना सीखता है। इसलिए गुरू कोई एक नहीं जिसके प्रति हमारे मन में श्रद्धाभाव हो या उससे हम कुछ सीखते हो। सही मायनों में वही गुरू है। आज भी गुरू पूर्णिमा पर सरकार द्वारा किए जाने वाले इंतजामों को देखकर यह कह सकते हैं कि यह सब हमारे लिए महत्वपूर्ण स्थान रखता है। दिल्ली में यातायात पुलिस द्वारा महरौली के भाटी माइल्स में मनाए जा रहे गुरू पूर्णिमा महोत्सव को लेकर यातायात परामर्श जारी किया कि सुबह सात बजे से मध्य रात्रि तक भारी वाहन इधर से ना जाए। गंतव्य तक पहुंचने और देरी से बचने के लिए अरबिंदो रोड एनएच 44 के माध्यम से वैकल्पिक मार्ग पर ही चलें। दूसरी ओर इस मौके पर खाटू श्याम के भक्तों के लिए रेलवे द्वारा रिंगस रेवाड़ी स्पेशल रेल का संचालन किया गया है। आज भी विभिन्न प्रदेशों में चल रहे गुरूकुल आश्रमों में गुरू परंपरा कायम है। यहां गुरू द्वारा ज्ञान शिष्यों को दिया जाता है। ऐेसे गुरूकुल देशभर में संचालित हैं। बताते हैं कि गुरू पूर्णिमा शिष्यों और साधकों के जीवन में एक दिव्य तिथि का स्थान रखती है। यह दिन हमें स्मरण कराता है कि हम सच्चे शिष्य होने का धर्म निभाएं। अपने गुरू के वचनों का पालन करें। उनके दिखाएं मार्ग पर चल उसे आत्मसात करें। आदि गुरू शंकराचार्य के शब्दों में कहें तो गुरू से बढ़कर कोई सत्य नहीं। यह ऐसा दीपक है जो हमारे अंतरमन के अंधेरे को मिटाकर आत्मा साक्षात्कार का पथ प्रस्त करते हैं। 75 प्रतिशत लोग मानते हैं कि गुरू का मार्गदर्शन सफलता में निर्णायक है।
लेकिन वर्तमान समय में जिस प्रकार से शिक्षा एक व्यवसाय बन गई है और धार्मिक आयोजनों में व्यक्ति की संपन्नता देखकर उसे सम्मान और प्रसाद व स्थान मिलता है उससे हमारी नई पीढ़ी सच्चा ज्ञान देने वालों को गुरू मानने में पीछे नहीं है लेकिन पैसे और सुविधा के पीछे भागने वालों को वो गुरू मानने को तैयार नहीं है। मेरा जीवन में समय कैसा रहा हो। भगवान के अलावा कोई गुरू नहीं हुआ लेकिन यह मैं भी मानता हूं कि गुरू की महिमा और ज्ञान आत्मसात किया जाए तो जीवन में कभी कष्टों का सामना नहीं करना पड़े। क्योकि हमें भौतिकवाद से दूर रहने का संदेश मिल चुका होता है। गुरू पूर्णिका का पर्व पवित्रता और श्रद्धा सम्मान के साथ ही अपने प्रेरणास्त्रोत व्यक्तियों का आशीर्वाद लेने का पर्व है। गुरू की महिमा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि गुरू द्रोण की मिटटी की मूर्ति बनाकर धनुष विद्या में अर्जुन का मुकाबला करने वाले एकलव्य ने कोई ज्ञान ना दिए जाने पर भी गुरू दक्षिणा के रूप में अपना अंगुठा काटकर दे दिया था। वो समर्पण आज भी हमें प्रेरणा और आदर का भाव उत्पन्न करती है। इनका दिखाया मार्ग अडिग रहने की प्रेरणा देता है। शायद इसलिए जब हम गुरू के चरणों में सिर झुकाते हैं तो हमें शक्ति शांति और गरिमा का अहसास होता है। मैं समस्त गुरूओं चाहे वह पुजारीं हो या शिक्षक संत महात्मा के प्रति नतमस्तक होते हुए अपने माता पिता जो हमारे बीच नहीं है उनको नमन करते हुए श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं। दोस्तों ग्रामीण कहावत को ध्यान में रखा जा सकता है कि हमें गुरू की सीख से मतलब होना चाहिए देने वाला चरित्रवान है तो सम्मान करों और नहीं है तो दूर से ही प्रणाम करो।
(प्रस्तुतिः रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
जीवन में पहले गुरू होते हैं माता पिता सिखाने वाले का स्थान कोई नहीं ले सकता हमें अच्छी बातों को आत्मसात कर बाकी को छोड़ देना चाहिए
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