इंडिया जस्टिस की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 15 न्यायाधीश होने की बात सामने आई है। अगर सोचें तो यह रिपोर्ट गंभीर है। लेकिन अगर वर्तमान परिस्थितियों आर्थिक समस्याओं तथा सरकार द्वारा अपराध कम करने और हर व्यक्ति को न्याय दिलाने के जो प्रयास किए जा रहे हैं। उसके हिसाब से इस संख्या को बहुत कम नहीं कह सकते। क्योंकि जरूरत इस बात की है कि ऐसे प्रयास सबको मिलकर करने चाहिए। जिससे अदालत जाने की जरूरत ही ना पड़े। खासकर इंडिया जस्टिस नामक संस्था को जिस प्रकार से वो यह गहन आंकड़े इकटठा करती है उसी हिसाब से आम आदमी को शिक्षित करने का प्रयास करे कि वो विवादों से दूर रहें पारिवारिक कलह कम हो और लोग एक दूसरे को सम्मान देने के साथ भाईचारे से रहने का प्रयास करें और एक दूसरे की बात मानें तो मुझे लगता है कि जो संख्या है या बढ़ोत्तरी कर इस विषय पर जो प्रश्न चिन्ह लगे हैं उन्हें समाप्त किया जा सकता है। न्यायाधीशों की संख्या पर तो मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि कानून बनाने या पुलिस व सुरक्षाकर्मियों व जजों की संख्या बढ़ाने से कोई बहुत बढ़ी व्यवस्था सुधरने वाली नहीं। आवश्यकता इस बात की है कि हर आदमी अपने स्तर पर यह कोशिश करे कि अपराध कम हो और जबरदस्ती जो न्यायालयों में मुकदमों की संख्या बढ़ रही है उसमें कमी आए और न्यायपालिका को भी ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे जो फैसले सामान्य मामलों में दस साल लटक जाते हैं वो कुछ माह में निपट जाए। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे मामलों में जो खबरें पढ़ने को मिली कि जज ने दो तीन माह में गंभीर मामलों का निस्तारण कर अपराधियों को सजा दी। मुझे लगता है कि जो यह न्यायाधीशों की संख्या को लेकर रिपोर्ट जारी हुई है उसका इससे समाधान हो सकता है। फिलहाल इससे संबंध एक खबर के अनुसार देश में हर 10 लाख लोगों पर सिर्फ 15 जज हैं, जबकि कानून आयोग ने 1987 में हर 10 लाख लोगों पर 50 जज होने की सिफारिश की थी। यह जानकारी गत को जारी इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 में दी गई। रिपोर्ट के अनुसार, भारत की 140 करोड़ की आबादी के लिए सिर्फ 21,285 जज हैं, यानी औसतन 15 जज प्रति दस लाख जनसंख्या। यह आंकड़ा कानून आयोग की सिफारिशों से काफी कम है।
उच्च न्यायालयों में 33 प्रतिशत पद खाली
इस रिपोर्ट में बताया गया कि देश के उच्च न्यायालयों में 33 प्रतिशत पद खाली हैं। हालांकि 2025 में रिक्तियों की दर 21 प्रतिशत बताई गई है। इससे मौजूदा जजों पर काफी काम का बोझ पड़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, जिला अदालतों में एक जज के पास औसतन 2,200 मुकदमों का बोझ है। वहीं, इलाहाबाद और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालयों में एक जज के पास 15,000 तक केस हैं।
महिलाओं की भागीदारी बढ़ी, लेकिन अब भी कम
रिपोर्ट में बताया गया कि जिला अदालतों में महिला जजों की संख्या 2017 में 30 प्रतिशत थी, जो 2025 में बढ़कर 38.3 प्रतिशत हो गई। उच्च न्यायालयों में यह आंकड़ा 11.4 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत हुआ है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में केवल 6 प्रतिशत महिला जज हैं। देश के 25 उच्च न्यायालयों में से केवल एक में महिला मुख्य न्यायाधीश हैं। दिल्ली की जिला अदालतों में महिला जजों की संख्या सबसे अधिक 45 प्रतिशत है और रिक्त पद केवल 11 प्रतिशत हैं, जो सबसे कम हैं।
अनुसूचित जाति और जनजातियों की हिस्सेदारी
रिपोर्ट के अनुसार, जिला अदालतों में केवल 5 प्रतिशत जज अनुसूचित जनजातियों (एसटी) से और 14 प्रतिशत जज अनुसूचित जातियों (एससी) से हैं। वहीं, 2018 से अब तक उच्च न्यायालयों में 698 जज नियुक्त किए गए, जिनमें से केवल 37 जज एससी और एसटी वर्ग से हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की हिस्सेदारी 25.6 प्रतिशत बताई गई है।
न्यायपालिका पर कम खर्च
रिपोर्ट के अनुसार, देश में प्रति व्यक्ति सालाना औसतन 182 रूपये न्यायपालिका पर खर्च किए जाते हैं, जबकि कानूनी सहायता पर सिर्फ 6.46 रूपये। कोई भी राज्य अपनी कुल सालाना खर्च का एक फीसदी भी न्यायपालिका पर खर्च नहीं करता, जो गंभीर चिंता का विषय है।
मुकदमों की सूची लंबित
रिपोर्ट में कहा गया है कि कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा को छोड़कर, बाकी सभी उच्च न्यायालयों में हर दो में से एक मामला तीन साल से अधिक समय से लंबित है। कुछ राज्यों जैसे बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, यूपी, ओडिशा और पश्चिम बंगाल की जिला अदालतों में 40 प्रतिशत से ज्यादा केस तीन साल से लंबित हैं। दिल्ली में हर पांच में से एक केस पांच साल से ज्यादा समय से लंबित है और दो फीसदी केस तो दस साल से ज्यादा समय से चल रहे हैं।
दिल्ली के अदालतों में केस की स्थिति
दिल्ली की जिला अदालतों में एक जज के पास औसतन 2,023 केस हैं। 2017 में यह संख्या 1,551 थी। यह राष्ट्रीय औसत 2,200 से थोड़ा कम है, लेकिन फिर भी काफी ज्यादा है। 2024 में दिल्ली का केस क्लियरेंस रेट (सीसीआर) 78 प्रतिशत था, जो देश में सबसे कम दरों में से एक है। पिछले सात सालों (2017-2024) में दिल्ली ने सिर्फ एक बार (2023) में 100 प्रतिशत केस क्लियरेंस हासिल किया है। बता दें कि, यह रिपोर्ट टाटा ट्रस्ट्स की पहल है, जो 2019 में शुरू हुई थी। इसका यह चौथा संस्करण है और इसे सेंटर फॉर सोशल जस्टिस, कॉमन कॉज, सीएचआरआई, दक्ष, टीआईएसएस-प्रयास, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी और हाउ इंडिया लिव्स के साथ मिलकर तैयार किया गया है।
इन सभी तथ्यों को देखते हुए यह जरूर कह सकता हूं कि मामला कोई भी हो अगर उसमें संख्या बल बढ़ाने की कोशिश होगी तो देश पर आर्थिक भार पड़ेगा और इसका सीधा असर आम आदमी पर पड़ेगा क्योंकि इसकी पूर्ति टैक्स से होगी। ऐसा ना हो इसके लिए तमाम संगठनों को समाज में शांति और भयमुक्त वातावरण और भाईचारे का माहौल पैदा करना होगा वरना सरकार कितने प्रयास कर ले जो आए दिन महंगाई बढ़ने और टैक्स बढ़ने की बात हम चिल्लाते हैं वो रूकने वाली नहीं है। यह तो हमें ही तय करना होगा कि क्या करना है।
मैं किसी भी आंकड़े और सुझाव का विरोध नहीं कर रहा हूं लेकिन ऐसे मामलों में जो संगठन अपनी रिपोर्ट जारी करते हैं और जो आयोग बनते हैं उनसे आग्रह किया जाए कि उनसे सुझावों से खर्च बढ़ने की संभावना होती है उसकी पूर्ति कैसे होगी यह भी अपने सुझाव दें ताकि आम आदमी पर कोई बोझ ना पड़े।
(प्रस्तुतिः रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
इंडिया जस्टिस जैसे संगठन अपराधों में कमी लाने के लिए प्रयास करें, जजों की संख्या पर सरकार ध्यान दे, खर्चों की पूर्ति कैसे होगी यह भी बताएं
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