नई दिल्ली 12 जनवरी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) को 1981 में संसद से पारित कानून के तहत अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा मिला है। एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा और 1981 के कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित है। सात जजों की संविधान पीठ इस पेचीदा मुकदमे की सुनवाई कर रही है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात जजों की पीठ ने गुरुवार को लगातार तीसरे दिन की सुनवाई में पूछा कि जब एएमयू राष्ट्रीय महत्व का संस्थान बना हुआ है, तो अल्पसंख्यक दर्जा कैसे मायने रखता है?
इस मामले की हो रही सुनवाई के क्रम में गुरुवार 11 जनवरी को वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद और शादान फरासत ने दलीलें पेश करते हुए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी बताया।
इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षकार यानी केंद्र सरकार और याचिकाकर्ताओं से पूछा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं इससे लोगों को क्या फर्क पड़ता है? कोर्ट ने कहा कि यह अल्पसंख्यक टैग के बिना भी राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि एएमयू ब्रांड नेम है।
इस सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी विचार किया कि अगर 1967 का एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ग़लत मान भी लें तो इसका प्रभाव 2006 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर क्या होगा ?
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने इस फैसले में 1981 के संशोधन अधिनियम के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था जिसके जरिए एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया गया था।
1967 के एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक केंद्रीय विश्वविद्यालय इसलिए इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है। इस फैसले के बाद ही केंद्र सरकार ने 1981 के संशोधन अधिनियम के द्वारा इसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया था।
सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता शादान फरासत ने दलीलें दी कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के कारण मुस्लिम महिलाएं बड़ी संख्या में यहां से शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं रहेगा तो उनकी शिक्षा में बाधा आ सकती है।
उन्होंने कहा कि एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा और महिला शिक्षा साथ-साथ चल रहा है। इसके अल्पसंख्यक दर्जा के कारण मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा मिला है।
उन्होंने कहा कि एक अल्पसंख्यक संस्थान भी राष्ट्रीय महत्व का संस्थान हो सकता है। यह जरूरी नहीं है कि सिर्फ बहुसंख्यक ही राष्ट्रीय महत्व के संस्थान स्थापित कर सकते हैं। उनकी इस दलील पर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि आर्टिकल 30 का मकसद अल्पसंख्यकों को किसी समूह में विभाजित करना नहीं है।इसलिए अगर आप अन्य समुदायों के लोगों को अपने संस्थान से जुड़ने देते हैं तो यह अल्पसंख्यक संस्थान प्रकाशक के रूप में उसके कैरेक्टर पर प्रभाव नहीं डालता है।
उन्होंने कहा कि कानून के मुताबिक आपको अपने संस्थान में उन लोगों को शामिल करना होगा जो अल्पसंख्यक नहीं है।
वहीं इस मामले में अपनी दलीलें देते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि अगर कानून इस तरह से हस्तक्षेप करता है तब एक अल्पसंख्यक संस्थान को आर्टिकल 30 के तहत मिले प्रशासन के अधिकार में बाधा आएगी।
इस पर सीजेआई ने कहा कि इस आर्टिकल का अनिवार्य तत्व अल्पसंख्यकों को उनकी पसंद का अधिकार प्रदान करना है।
अब इस मामले की अगली सुनवाई 23 जनवरी को होगी। तीन दिनों की इस सुनवाई में देश के दिग्गज अधिवक्ताओं ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के पक्ष में दलीलें दी।
बता दें कि एएमयू के माइनॉरिटी स्टेटस के संबंध में इससे पहले साल 1967 में एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मुकदमे में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने फैसला पारित किया था। इस फैसले में कहा गया था कि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है। ऐसे में इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है। 1875 में स्थापित AMU को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 14 साल बाद अल्पसंख्यक दर्जा वापस मिला था। 1981 में संसद से पारित कानून के माध्यम से तत्कालीन सरकार ने एएमयू को माइनॉरिटी स्टेटस दिया।