प्यार भरे रंग उड़ाने लगाने और हंसी ठिठौली करने का त्योहार होली इस वर्ष 13 और 14 मार्च को मनाई जाएगी। पहले दिन होली जलेगी और दूसरे दिन मस्ती से रंग खिलेगा। देशभर में बच्चा हो या बड़ा महिला हो या पुरूष और खासकर ब्रज और देहातों में बंसत पंचमी के दिन होलिका की लकड़ी रखी जाती है और फिर रंग खिलने तक इसकी मस्ती कम या ज्यादा सब में छाई रहती है। इस बार क्या क्या बनाना है कैसे कपड़े सिलवाने है इसकी चर्चा के साथ ही दही भल्ले पानी के बताशे नमकीन पकोड़े खाने के लिए कौन कौन आयेगा हम कहां कहां जाएंगे इसकी तैयारी भी होने लगती है।
पूर्व में हल्की हल्की ठंड और बदन में सुरसुरी पैदा करने वाली हवा के बीच गली मौहल्लों और बाजारों में रंगीन पानी में भिंगते घूमने का जो मजा था वो जीवन भर याद रहता है। लेकिन इस बार अभी होली के रंग खिलने और जलने में एक महीना बाकी है। लेकिन अगर सुबह शाम को छोड़ दे तो ठंड़ का नामनिशान नहीं है। दिन में बताते है कि पहली बार 27 और 28 डिग्री पर गर्मी पड़ रही है। यह मौसम क्यों बदल रहा है यह तो सभी जानते है कि जिस प्रकार से सब तरह का प्रदूषण समाज में फैल रहा हैं। पेड़ पौधे जल जमीन और पहाड़ का दोहन हो रहा है। गर्मी से बचने के लिए अभी से ही कुछ लोग एसी चलाने लगे है। वाहनों में वातानुकूलित मौसम के चलते बाहर कितना प्रदूषण फैलता है इसके बारे में सभी जानते है। और यही मौसम परिवर्तन ठंड़ में गर्मी और गर्मी में ठंड़ का मुख्य कारण कह सकते है। अभी दोपहर में सड़कों पर कुछ राहगीर इतना इंतजाम गर्मी से बचाव करते आते जाते नजर आते है जितना पहले मई जून में हुआ करता था।
खैर चलो यह तो हो गई व्यवस्था की बात मगर होली की बचपन की यादें आज भी मन को गुदगुदाती है और उस समय की घटनाऐं मुस्कुराने को करती है मजबूर। बचपन तो बीत गया मगर उसका प्यार भरा एहसास आज भी बना हुआ है। कि कैसे बच्चे बंसत से जंगलों और कोठियों से पेड़ों की डालियां छिपाछिपी तोड़कर लाते थे। और कभी पकड़े जाते थे तो पिटाई भी होती थी मगर जोश कम नहीं। होली आते आते लकड़ियों का इतना ढेर हो जाता था कि होली मईया पूरी रात जलती रहती थी। गांवों में एक हफ्ते पहले ही बच्चे बास की पिचकारी बनाकर एक दूसरे पर किचड़ डालने अथवा धूल मिट्टी में गिरकर हंसने और खिलखिलाने लगते थे। ब्रज क्षेत्र की होली और उसके आसपास के माहौल का तो पूर्ण विवरण शब्दों में कर पाना आज भी संभव नहीं हैं। हां नमकीन मिठाई बेचने वाले हलवाई कपड़े का व्यापार करने वाले बजाज के घरों में खुशियां जमकर मनाई जाने लगती थी क्योंिक पूरे साल में जो चार पांच त्योहार कमाई के आते है उनमें होली भी प्रमुख है क्योंकि यह एक ऐसा त्योहार है जिसमें गरीब और अमीर व्यक्ति अगर संभव है तो एक जोड़ी कपड़े चाहे वो पायजामा बनियान हो या सूट साड़ी सभी खरीदते है। क्योंकि दशहरा दिवाली व अन्य त्योहारों से ज्यादा होली में नये कपड़ों का एक अलगी ही चार्म होता था। रंग वाले दिन शाम को व्यापारी अपनी दुकान के बाहर सफेद और रंगीन साफ सुथरे कपड़े बिछाकर बैठते थे मिलने आने वालों को सौंप इलायची मिशरी खिलाई जाती थी। तो कुछ लोग चाट पकोड़ी खस्ता कचौड़ी आलू की दावत भी करते थे। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि होली मिलन व कवि सम्मेलनों में एक दूसरे की खूब खिचाई और मजाक होता था। अब तो जहां तक दिखाई देता है एक दो स्थानों पर परंपरागत रूप से ही आयोजन हो रहे है।
लेकिन किसी भी बात को गलत नहीं कह सकते क्योंकि समय बड़ा बलवान है परिवर्तन वक्त के साथ होना अनिवार्य है। बढ़ते खर्चों कम कमाई और समय का अभाव के साथ साथ चारों ओर फैंली गंदगी उससे उत्पन्न प्रदूषण के चलते होने वाली बिमारियों ने भी खुशियों में कमी की है। बाकी कुछ पेड़ पौधों की सुरक्षा के कारण और पर्यावरण संतुलन बना रहे इसलिए बड़े बुढें बच्चे सभी लकड़ियां इक्ट्ठी करने से बचते है। क्योंकि पर्यावरण संतुलन बना रहेगा खर्च कम होगा तो सिमित आमदनी में भी घरों में खुशियां बनी रहेगी।
प्यारे पाठकों हम सब रहे खुशहाल मौजमस्ती में बने त्योहार किसी को न जाना पड़े डाक्टर के पास और कोई त्रस्त न हो बिमारी से। ताजी हवा और हरियाली मिले भरपूर इसके लिए आओ करें संकल्प ना तो होली पर किसी को खतरनाक रंग लगायेंगे और गुलाल, गंदगी का उपयोग बिल्कुल न करेंगे अगर टेशू के फूल मिल जाते है तो उसके रंग से वर्ना शुद्ध गुंलाल और रंगों का करेंगे उपयोग और अगर ऐसी स्थिति नहीं है यह सामान खरीदने की तो शुद्ध पानी से ही चलायेंगे काम मगर ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जो होली के बाद भी परेशानी का कारण बने और खुशियां परेशानियों मे ंबदल जाए और अपने ही बन बैठे दुश्मन। इन सबको पीछे छोड़ साफ मन से गले मिलकर बधाई देने और पूरे साल संपर्को की मिठास बनी रहे ऐसे काम करते हुए होली मईयां को विदा करेंगे तथा भक्त पहलाद की भक्ति की जो मिसाल है वो और मजबूत हो और यह परंपरा चलती रहे इस सोच को आगे बढ़ाने से नहीं रहेंगे पीछे। इसी के साथ होली आई रे कन्हैया रंग बरसे रे भीगे चुनर वाली रंग बरसे रे चाहे भीगे रे तेरी चुनरियां चाहे भीगे रे चोली खेलेंगे हम होली जैसे गीतों पर ढूमकने के लिए हो जाओ तैयार। खुब नाचेगे खायेगे सबको गले लगाकर प्यारा से होली मनायेंगे।
(प्रस्तुतिः अंकित बिश्नोई सोशल मीडिया एसोसिएशन एसएमए के राष्ट्रीय महामंत्री व मजीठिया बोर्ड यूपी के पूर्व सदस्य)
होली जलेगी रंग उड़ेगें बचपन की यादों में नाचेगे गायेंगे
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