हर बच्चे को साक्षर बनाने के लिए अभिभाववकों के साथ साथ सरकारें भी काफी प्रयास कर रही हैं। इसके लिए बजट का बड़ा हिस्सा प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक खर्च किया जा रहा है और शिक्षकांें को सुविधाएं देकर उनकी समस्याओं का समाधान सरकार कर रही है। उसके बावजूद सरकारी प्राइमरी स्कूलों में नागरिक अपने बच्चों को भेजना पसंद नहीं करते। ऐसा क्यों है यह तो जांच का विषय है। जहां तक मुझे नजर आता है वो यह है कि सरकारी स्कूल हो या सहायता प्राप्त स्कूल जिनमें शिक्षकों को बीएसएस उपनिदेशक शिक्षा और डीआईओएस द्वारा जो काम सौंपा गया वो ढंग से ना होने के कारण शिक्षक तो पूरे हैं कितना पढ़ाते हैं यह जांच का विषय है। सरकार जितनी सहायता दे रही है उसके हिसाब से स्कूलों का रखरखाव प्रबंध समितियां क्यों नही कर रही है। यह देखने की जरूरत शिक्षा विभाग के अधिकारियो को नजर नहीं आती। इस बारे में जानकार लोगों का यह कहना कि अधिकारी तो अपनी सुविधा और बैंक बैलेंस बढ़ाने में ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। शायद यही कारण है कि सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या निर्धारित किए जाने के बाद भी 75 प्रतिशत के स्थान पर कुछ स्कूलों में गिनती के बच्चे मौजूद हैं। जिन स्कूलांे में बच्चे कम होंगे उन्हें बंद किया जाना चाहिए लेकिन स्कूल संचालकों और अधिकारियों की मिलीभगत से ऐसा नहीं हो पा रहा। जिससे इन स्कूलों में बच्चों की संख्या नगण्य होती जारही है। इसके उदाहरण के रूप में यूपी के मेरठ में मवाना में 250 मीटर की दूरी पर स्थित छह स्कूलों में 190 बच्चे की पंजीकृत है। जिससे यह साबित होता कि बच्चों की उपस्थिति तय नहीं हो पा रही है। अगर सरकार डीएम के माध्यम से शिक्षा विभाग के अधिकारियों पर सख्ती कराए और स्कूलों का निरीक्षण माह में एक बार हो और यह देखा जाए कि किस स्कूल में बच्चों की कितनी उपस्थिति है। कितने शिक्षक हैं और कितने आ रहे हैं तो मुझे लगता है कि शिक्षा का स्तर सहायता प्राप्त स्कूलों में सुधर सकता है। ओर प्रबंध समितियां बच्चों की संख्या बढ़ाने और रखरखाव सही करने में रूचि नहीं ले रहे उनकी सेवाएं समाप्त की जाएं या दूसरे स्कूलों में भेजा जाएं और कम संख्या वाले छात्रों को दूसरे स्कूल में भेजकर उन्हें बंद कर दिया जाए। तभी शिक्षा व्यवस्था में सुधार हो सकता है।
(प्रस्तुतिः रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
कम छात्र छात्रा संख्या वाले स्कूलों को बंद करे सरकार
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