ग्रामीण कहावत ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता ही गया के समान देश मेें जहरीली हवा और प्रदूषण के प्रकोप को कम करने की जितने प्रयास हो रहे हैं उतना ही यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है।
न्यायमित्र वरिष्ठ अधिवक्ता अपराजिता सिंह द्वारा जस्टिस अभय एस ओका व जस्टिस ऑगस्टीन जार्ज मसीह की पीठ के समक्ष वायु प्रदूषण के मामले को रखा गया है जिस पर 18 नवंबर को सुनवाई होना बताया जा रहा है। इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि प्रदूषण चाहे वाहनों के धुंए से उत्पन्न हो या सड़क पर कूड़ा, टायर या प्लास्टिक जलाने से। जो भी हो यह पराली जलाने से घातक और नुकसानदायक नहीं होता है। इसलिए इसकी रोकथाम हर हाल में समय से होना नागरिकों के हित में सबसे ज्यादा जरूरी है।
लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रदूषण रोकने और धूल से आम आदमी को बचाने के लिए लाखों लीटर पानी जो वीआईपी क्षेत्रों में पेड़ों आदि पर झिड़का जा रहा है उससे या स्कूलों में छुटटी कर देने से इस समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। क्योंकि जिन इलाकों में धूल उडती है वहां ना तो पानी का छिड़काव होता है और ना कोई जरूरी समझता है। मलिन बस्तियों या बाहरी क्षेत्रों में नाले नाली में सफाई की ओर भी जिस स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए वो नहीं दिया जा रहा है। ऐसे में वायु प्रदूषण या अन्य प्रदूषण से जल्द मुक्ति संभव नहीं लगती है। दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र से आने वाली बसों का दिल्ली में प्रवेश बंद करना भी किसी समस्या का समाधान नहीं कह सकते। अब सवाल उठता है कि फिर इस घातक बीमारियों की जिम्मेदार प्रदूषण को कैसे काबू किया जाए। तो इस बारे में क्या होना चाहिए यह तो 18 नवंबर को दोनों जस्टिस की पीठ फैसला देगी उससे ही मार्गदर्शन होगा लेकिन मेरा मानना है कि जिन क्षेत्रों में प्रदूषण बढ़ता नजर आए वहां के आरटीओ नगर निगम और पुलिस के जिम्मेदार अधिकारियों पर सख्ती की जाए तथा जिस क्षेत्र में सफाई ना हो उसके लिए जिम्मेदार और जिस घर के आगे कूड़ा पड़ा हो उसके मालिक के खिलाफ कार्रवाई की व्यवस्था एक समान होने लगे तो शायद इस प्रदूषण की समस्या से छुटकारा जरूर मिलेगा। एक बात जरूर कही जा सकती है कि जब भी प्रदूषण की बात होती है तो एनसीआर क्षेत्र में निर्माण कार्यों और फैक्ट्रियों पर प्रतिबंध लगाया जाता है जबकि मुझे लगता है कि निर्माण कार्यो के लिए आए रेत मिटटी पर पानी छिड़ककर काम जारी रखा जाए और जो फैक्टी प्रदूषण फैलाती है उस पर कार्रवाई हो लेकिन अन्य फैक्ट्रियों को बंद करना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। एक बात यह भी सही है कि जिन चीजों और कारणों से प्रदूषण फैलने की शुरूआत होती है अगर उन पर प्रथम चरण में ही रोक लगाते हुए कार्रवाई की जाए तो भी कुछ ना कुछ लाभ नागरिकों को होगा। बाकी जैसा मैं हमेशा कहता हूं सिंगल यूज प्लास्टिक, पटाखों और अन्य सामग्री जो प्रदूषण पैदा करती है के उत्पादन पर ही रोक लगा दी जाए तो ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी के समान प्रदूषण फैलेगा ही नहीं तोे स्कूल एवं बसों का आवागमन बंद करने की नौबत आए। कुछ लोग कहते हैं कि जब 90 प्रतिशत लोग प्रदूषण को बढ़ावा देने में लगे है तो हम क्या कर सकते हैं। इस बारे में यह कह सकता हूं कि अकेला चना भले ही भाड़ ना फोड़ पाए लेकिन जिस प्रकार आंख फोड़ देता है बाकी दस प्रतिशत और प्रदूषण की रोकथाम करने वाले लोग गलियों बाजारों और स्वच्छता वाले इलाकों में जागरूकता गोष्ठी चलाते हैं वो अगर देहात और जहां कूड़ा जलता है या प्लास्टिक जलाया जाता है उन क्षेत्रों में काम करें और इस काम में लगे लोगों की शिकायत अफसरों से करने लगे तो शायद 95 प्रतिशत प्रदूषण की समस्या अपने आप दूर हो सकती है। बाकी तो जल जमीन जितना हम बचाकर रखेंगे उतना ही सुविधा प्रदूषण समाप्ति में ही हमें मिलेगी। इसलिए आओ सिर्फ नारे देने या गोष्ठियां करने के नाम पर चर्चाओं में रहने की बजाय सही मायनों में इस क्षेत्र में कार्य करने का बीड़ा उठाएं तो वो सोने में सुहागा के समान हो सकता है और यह काम भी मुझे जैसे लोग नहीं वो लोग कर सकते हैं जो यह मानते हो कि भगत सिंह पड़ोसी के नहीं मेरे घर में पैदा हो क्योंकि इसके लिए कभी कभी प्रताड़ना झेलने की नौबत से इनकार नहीं किया जा सकता।
(प्रस्तुतिः संपादक रवि कुमार बिश्नोई दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
स्कूलों की छुटटी करने, निर्माण कार्य और बसों का प्रवेश रोकना प्रदूषण का इलाज नहीं! आरटीओ, पुलिस और स्थानीय निकायों के जिम्मेदारों को थोड़ा टाइट किया जाए तो हो सकता है समाधान
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