प्रयागराज 08 नवंबर। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए निर्णय दिया है कि जिस लड़की की शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हुई हो, वह 20 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले अपनी शादी को रद्द करवा सकती है। इसी प्रकार एक लड़का जिसका विवाह 21 वर्ष की आयु से पहले हुआ है वह 23 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले अपनी शादी को रद्द करवा सकता है।
हाईकोर्ट ने कहा कि पति 23 वर्ष की आयु से पहले बाल विवाह निषेध कानून ( पीसीएमए) की धारा 3 का लाभ लेने के लिए तथा बाल विवाह को शून्य कराने के लिए मुकदमा दायर कर सकता है। प्रस्तुत मामले में यह निर्विवाद था कि दम्पति के बीच बाल विवाह हुआ था, इसलिए न्यायालय ने विवाह को शून्य घोषित कर दिया।
पत्नी ने 50 लाख रुपए का स्थायी गुजारा भत्ता मांगा, जबकि पति ने कहा कि वह केवल 15 लाख रुपये ही दे सकता है।
हाईकोर्ट ने कहा कि प्रिंसिपल जज फैमिली कोर्ट गौतम बुध नगर के आदेश को बरकरार नहीं रखा जा सकता। इसे रद्द किया जाता है। पक्षों के बीच किए गए “बाल विवाह” के लेन-देन को शून्य घोषित किया जाता है। एक महीने की अवधि के भीतर प्रतिवादी पत्नी को 25 लाख रुपये का भुगतान किया जाए ।
यह आदेश जस्टिस एस डी सिंह एवं जस्टिस दोनादी रमेश की खंडपीठ ने संजय चौधरी की अपील पर पारित किया है। न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि बाल विवाह को रद्द करने के लिए समय-सीमा की गणना करने के प्रयोजनार्थ पुरुष की वयस्कता की आयु 18 वर्ष से प्रारंभ होगी या 21 वर्ष से।
हाईकोर्ट ने कहा कि भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच विवाह की कानूनी उम्र में अंतर “पितृसत्ता का एक अवशेष के अलावा कुछ नहीं है। वर्तमान में भारत में पुरुषों के लिए विवाह की आयु 21 वर्ष है जबकि महिलाओं के लिए 18 वर्ष है। खंडपीठ ने कहा कि विधायी मंशा पुरुषों को अपनी शिक्षा पूरी करने और परिवार की सहायता के लिए वित्तीय स्वतंत्रता हासिल करने के लिए अतिरिक्त तीन वर्ष की अनुमति देने की है।
हालांकि, न्यायालय ने कहा कि यह महिलाओं को समान अवसर से वंचित करने के समान है। हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी एक पति की अपील पर विचार करते हुए की, जो एक पारिवारिक न्यायालय द्वारा उसके विवाह को शून्य घोषित करने से इंकार करने के खिलाफ थी।
विवाह शून्य कराने का पति का आधार पर था कि 2004 में हुआ यह विवाह बाल विवाह था, क्योंकि उस समय वह केवल 12 वर्ष का था और उसकी पत्नी केवल 9 वर्ष की थी। वर्ष 2013 में पति ने 20 वर्ष, 10 महीने और 28 दिन की आयु में बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) की धारा 3 के तहत लाभ का दावा किया था। यह प्रावधान विवाह के समय बालिग पक्ष को विवाह को अमान्य घोषित करने की अनुमति देता है।
हाईकोर्ट के सामने प्रश्न यह था कि क्या पुरुष के लिए वयस्कता की उम्र 18 साल से शुरू होगी या 21 साल, जो शादी के लिए कानूनी उम्र है. कोर्ट ने कहा कि 21 साल से कम उम्र के पुरुष और 18 साल से कम उम्र की महिला को पीसीएमए के प्रयोजनों के लिए बच्चा माना जाता है.
कोर्ट ने कहा कि एक बार जब पीसीएमए में इस्तेमाल नाबालिग शब्द 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को संदर्भित करता है, तो स्पष्ट रूप से 18 वर्ष से अधिक उम्र का व्यक्ति नाबालिग नहीं होगा. खंडपीठ ने कहा कि कोर्ट की कार्यवाही शुरू करने की सीमा पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए एकल है. वह इंडिपेंडेंट थॉट मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अलग होने में असमर्थ है. इस फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा है कि जिस लड़की की शादी 18 साल से पहले हुई हो, वह 20 साल की उम्र से पहले अपनी शादी रद्द करा सकती है और इसी तरह एक लड़का 23 साल की उम्र से पहले अपनी शादी रद्द करा सकता है.
कोर्ट ने कहा कि पति 23 साल का होने से पहले मुकदमा कर सकता है. यह निर्विवाद था कि दंपती के बीच बाल विवाह हुआ था इसलिए अदालत ने विवाह को शून्य घोषित कर दिया. प्रकरण में पत्नी ने 50 लाख रुपये का स्थायी गुजारा भत्ता मांगा था. पति ने कहा कि वह केवल 15 लाख रुपये का भुगतान कर सकता है. खंडपीठ ने कहा कि फैमिली कोर्ट के आदेश को कायम नहीं रखा जा सकता. पत्नी को एक महीने की अवधि के भीतर 25 लाख रुपये का भुगतान किया जाए.