asd क्षेत्रीय पीठों के गठन पर केन्द्र सहमत, अब फैसला सुप्रीम कोर्ट के हाथ

क्षेत्रीय पीठों के गठन पर केन्द्र सहमत, अब फैसला सुप्रीम कोर्ट के हाथ

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नई दिल्ली 12 फरवरी। केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने भले ही सुप्रीम कोर्ट की क्षेत्रीय पीठों के गठन की संसद की स्थायी समिति की सिफारिश को स्वीकार कर लिया है, लेकिन इस पर अंतिम फैसला शीर्ष अदालत को ही लेना है। इसकी वजह यह है कि देश की सर्वोच्च अदालत को दो हिस्सों (संवैधानिक और विधि) में विभाजित करने और क्षेत्रीय पीठ गठन का मुद्दा पांच जज की संविधान पीठ के समक्ष अब भी लंबित है। ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट की क्षेत्रीय पीठ का गठन संविधान पीठ के फैसले पर निर्भर करेगा।

केंद्रीय कानून मंत्रालय ने कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय विभाग से संबंधित संसद की स्थायी समिति की ‘न्यायिक प्रक्रियाएं और उनके सुधार विषय पर जारी रिपोर्ट में की गई सुप्रीम कोर्ट की चार से पांच क्षेत्रीय पीठों के गठन की सिफारिश को स्वीकार कर लिया। समिति ने अपनी 133वीं रिपोर्ट पर 144वीं कार्यवाही रिपोर्ट जारी की है। समिति की 133वीं रिपोर्ट पिछले साल सात अगस्त को राज्यसभा और लोकसभा में पेश की गई थी। इसमें कई सिफारिशें की गई थीं।

क्यों जरूरी है क्षेत्रीय पीठ
स्थायी समिति ने देश के शीर्ष अदालत की क्षेत्रीय पीठों की मांग पर विचार करते हुए अपनी रिपोर्ट में न्याय तक आसानी से पहुंच को संविधान के तहत लोगों का मौलिक अधिकार बताया है। समिति ने कहा कि लंबे समय से आम लोगों द्वारा सुप्रीम कोर्ट की क्षेत्रीय पीठों के गठन की मांग हो रही है इसलिए इन पीठों का गठन जरूरी है। इसका उद्देश्य न्यायपालिका पर बढ़ते मुकदमों के बोझ को तेजी से कम करना और आम लोगों को कम लागत पर न्याय मुहैया कराना है।

स्थायी समिति ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के दिल्ली में केंद्रित होने के चलते उन लोगों को न्याय पाने में परेशानियों का सामना करना होता है जो दूर-दराज इलाकों से आ रहे हैं। समिति ने कहा कि लोगों को भाषाई दिक्कतों के अलावा अपने मुकदमे के लिए अच्छे वकील ढूंढने की चुनौती, मुकदमेबाजी की लागत, मुकदमा लड़ने के लिए दिल्ली आने, यहां ठहरने की लागत, न्याय को महंगा बना रहा है। समिति ने कहा कि देश के अलग-अलग हिस्सों में सुप्रीम कोर्ट की चार से से पांच क्षेत्रीय पीठ होनी चाहिए।

शीर्ष अदालत पहले खारिज कर चुकी मांग
विधि आयोग ने 1984 में, सरकार को भेजी अपनी 95वीं रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट को दो हिस्सों ( संवैधानिक और विधि) में विभाजित करने की सिफारिश की थी। इसके बाद आयोग ने 1988 में भी 125वीं रिपोर्ट में यही सिफारिश की। इसके पीछे आयोग का मकसद था कि सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ सिर्फ संवैधानिक मसलों पर सुनवाई करे और विधि पीठ उच्च न्यायालयों के फैसलों के खिलाफ अपीलों की सुनवाई करे। आयोग की मंशा लंबित मुकदमों का तेजी से निपटारा किये जाने से था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की 27 जज की पूर्ण पीठ ने अपने पहले के रुख को बरकरार रखते हुए क्षेत्रीय पीठ के गठन को मांग को सिरे से खारिज कर दिया था।
क्षेत्रीय पीठ के गठन की मांग जोर पकड़ने पर मार्च, 2016 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने इस पर विचार करने और समुचित निर्णय लेने के लिए संविधान पीठ गठित करने की घोषणा की। तब केंद्र सरकार ने पीठ के गठन के विचार कर विरोध किया था। तब कोलकाता, चेन्नई और मुंबई में क्षेत्रीय पीठ के गठन की बात हो रही थी। संविधान पीठ के समक्ष यह मामला अब भी लंबित है।

संसद की स्थाई समिति की अन्य सिफारिशें
संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश में कानूनी शिक्षा को विनियमित करने की भारतीय विधिज्ञ परिषद (बीसीआई) की शक्तियों को सीमित करना चाहिए। समिति ने कहा कि बीसीआई को बार (वकीलों के संघ) में वकालत करने के लिए बुनियादी पात्रता स्थापित करने तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। कानूनी शिक्षा पर पेश अपनी विस्तृत रिपोर्ट में समिति ने जोर देकर कहा कि उच्च शिक्षा, विशेष रूप से स्नातकोत्तर और उससे आगे की शिक्षा के लिए बीसीआई की नियामक भूमिका को एक स्वतंत्र प्राधिकरण यानी राष्ट्रीय कानूनी शिक्षा एवं अनुसंधान परिषद को हस्तांतरित करना चाहिए।

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