नई दिल्ली 05 मार्च। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को मरीजों और उनके तीमारदारों को निजी अस्पतालों की फार्मेसियों द्वारा किसी भी तरह के ‘धोखा’ दिए जाने, अनुचित लाभ उठाने और उत्पीड़न से बचाने के लिए समुचित नीति की जरूरत पर जोर दिया।
हालांकि शीर्ष अदालत ने इस मुद्दे से निपटने के लिए नीति बनाने का काम राज्य सरकारों पर छोड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम इस मुद्दे पर कोई अनिवार्य आदेश पारित नहीं कर रहे क्योंकि इसका व्यापक प्रभाव होगा, लेकिन राज्यों को उचित नीतिगत निर्णय लेने की जरूरत है। जस्टिस सूर्यकांत और एन. कोटिस्वर सिंह की पीठ ने यह टिप्पणी जनहित याचिका का निपटारा करते हुए की। याचिका में आरोप लगाया गया कि मरीजों को निजी अस्पतालों में संचालित फार्मेसियों से अधिक कीमत पर दवाएं और चिकित्सा उपकरण खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। पीठ ने विधि छात्र सिद्धार्थ डालमिया और उनके अधिवक्ता पिता विजय पाल डालमिया द्वारा दायर जनहित याचिका का निपटारा किया। पीठ ने इस बात पर भी जोर दिया कि अदालत द्वारा दिया गया कोई भी अनिवार्य आदेश निजी अस्पतालों के कामकाज में बाधा उत्पन्न कर सकता है और इसका व्यापक प्रभाव हो सकता है। केंद्र ने कहा कि अस्पताल से दवा लेने की कोई बाध्यता नहीं है।
आदेश निजी कामकाज में डाल सकता है बाधा
शीर्ष अदालत ने कहा कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का नागरिकों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित है। स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी अस्पतालों द्वारा किए गए योगदान की सराहना करते हुए, जो दुनिया भर में जाने जाते हैं, पीठ ने कहा कि अदालत द्वारा कोई भी अनिवार्य निर्देश उनके कामकाज में बाधा डाल सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि हम सभी राज्य सरकारों को निर्देश देते हैं कि वे इस मुद्दे पर विचार करें और उचित नीतिगत निर्णय लें। पीठ ने कहा कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है और स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकारें प्रासंगिक विनियामक उपाय कर सकती हैं।