नई दिल्ली, 15 फरवरी। आज से करीब 7 साल बाद अंतरिक्ष से पृथ्वी पर एक जबरदस्त खतरे के आने के आसार हैं। दुनियाभर की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसियां फिलहाल इस खतरे से निपटने के लिए योजना तैयार करने में जुटी हैं। फिर चाहे वह अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी- नासा हो या चीन, जो कि इस खतरे से निपटने के लिए सुरक्षाबल की अलग टुकड़ी तक बनाने की तैयारी कर रहा है। यह खतरा है एक उल्कापिंड का, जो कि 2032 में पृथ्वी से टकरा सकता है। अभी तक इस उल्कापिंड के धरती पर गिरने का खतरा कम है, हालांकि अगर यह सच हुआ तो नुकसान बड़ा हो सकता है।
ऐसे में यह जानना अहम है कि आखिर पृथ्वी पर एक उल्कापिंड के टकराने की जानकारी पहली बार कहां से सामने आई? इसका खतरा कितना गंभीर है? अगर यह उल्कापिंड धरती से टकराता है तो किस-किस क्षेत्र में भारी तबाही मचा सकता है? इसका प्रभाव कितना बड़ा होगा? अलग-अलग देश इस परेशानी से निपटने के लिए क्या तैयारी कर रहे हैं?
वाईआर4 उल्कापिंड का पूरा नाम 2024 वाईआर4 रखा गया है। इस उल्कापिंड को अपोलो-टाइप यानी पृथ्वी को पार करने वाली वस्तु के तौर पर चिह्नित किया गया। वाईआर4 की पहली बार खोज चिली के रियो हुर्तादो में स्थित एक उल्कापिंड की निगरानी रखने वाले स्टेशन 27 दिसंबर 2024 को की। बताया जाता है कि जब एस्टरॉयड टेरेस्ट्रियल इंपैक्ट लास्ट अलर्ट सिस्टम (एटलस) ने इस उल्कापिंड के खतरे को लेकर चेतावनी जारी की तब दुनियाभर की अंतरिक्ष एजेंसियों में हड़कंप मच गया। इसके बाद से ही अंतरिक्ष एजेंसियों ने वाईआर4 को अंतरिक्ष से गिरने वाली वस्तुओं के जोखिम की लिस्ट में नंबर-1 पर रख दिया।
मौजूदा समय में वाईआर4 उल्कापिंड पृथ्वी से करीब 6.5 करोड़ किलोमीटर की दूरी पर है। हालांकि, यह तेजी से आगे बढ़ रहा है। वाईआर4 के बढ़ते खतरे पर जेम्स वेब टेलीस्कोप की मदद से लगातार नजर रखी जा रही है और इसके बदलती कक्षा को समझने और उसके भविष्य के प्रभावों को भी परखा जा रहा है।
चौंकाने वाली बात यह है कि इस उल्कापिंड के कक्षा बदलने की वह से यह मार्च 2025 तक जेम्स वेब टेलीस्कोप पर नजर आएगा, हालांकि इसके बाद अप्रैल के अंत तक कक्षा में दूर जाने की वजह से इसे ट्रैक करना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। – अंतरिक्ष एजेंसियों का अनुमान है कि वाईआर4 इसके बाद जून 2028 तक किसी भी टेलीस्कोप की पकड़ में नहीं आएगा।
यानी करीब 38 महीनों तक वैज्ञानिक सिर्फ अनुमानों के आधार पर ही उल्कापिंड को ट्रैक करेंगे। इसके असल खतरे के बारे में टेलीस्कोप से जानकारी तीन साल के लंबे अंतराल के बाद मिलेगी।
यूरोपीय स्पेस एजेंसी (ईएसए) में श्नियर-अर्थ ऑब्जेक्ट कॉर्डिनेशन सेंटर के प्रबंधक लुका कॉन्वर्सी के मुताबिक, अब तक यह उल्कापिंड चट्टानी पदार्थों से बना नजर आता है। इसममें लोहे और अन्य धातुओं की पहचान नहीं की जा पाई है। यानी पृथ्वी के वातावरण में पहुंचने के बाद यह तेज गति की वजह से छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट सकता है और धरती से टकराने की स्थिति में इसका प्रभाव भी कम हो सकता है।
हालांकि धरती के पास से इसके सुरक्षित गुजरने की संभावना 97.9% है, लेकिन नासा ने इसे धरती के लिए खतरनाक बताया है। पूर्वी प्रशांत महासागर, उत्तरी दक्षिण अमेरिका, अटलांटिक महासागर, अफ्रीका, अरब सागर और दक्षिण एशिया में से किसी एक हिस्से से यह टकरा सकता है। टकराव से वेनेजुएला, कोलंबिया, इक्वाडोर, भारत, पाकिस्तान , बांग्लादेश, इथियोपिया, सूडान और नाइजीरिया जैसे देशों में तबाही मच सकती है।