asd सरकार ऐसी नीति बना ही क्यों रही है ?

सरकार ऐसी नीति बना ही क्यों रही है ?

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जूनियर अध्यापकों के मामले में 26 जून 2024 के शासनादेश एवं बेसिक शिक्षा विभाग के 28 जून के सर्कुलर को प्रावधानो को मनमाना व भेदभाव पूर्ण करार देते हुए खारिज कर दिया। एकल पीठ के जस्टिस मनीष माथुर द्वारा पुष्कर सिंह चंदेल आदि सैंकड़ों जूनियर शिक्षकों की याचिका पर दिए इस फैसले से प्रदेश के हजारों जूनियर अध्यापकों को बड़ी राहत देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने प्रदेश के प्राथमिक स्कूलों में शिक्षक छात्र अनुपात बनाए रखने के लिए लाई गई पहले आओ पहले पाओं की नीति को निरस्त कर दिया। सरकार चलानी है तो कुछ निर्णय भी शासन स्तर पर लेने होते है। वो किसी के हित या किसी के अहित के ना हो ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन आजकल सरकार द्वारा किए जाने वाले आदेशों नीति को रद करते हुए जिस प्रकार से अदालतों द्वारा उनकी उपयोगिता पर सवाल उठाए जा रहे हैं वो जिम्मेदार जनप्रतिनिधियों को यह समझाने का इशारा भी कह सकते हैं कि नौकरशाहों द्वारा लालफीता शाही की धमक बनाने के लिए इस प्रकार की नीतियों को लागू करने से पहले एक कमेटी से जांच कराई जाए क्योंकि कैबिनेट की बैठक में बहुत मामले होते हैं। उनमें तो पास कर दिया जाता है। बीते दिनों निजी संपत्ति और मदरसा बोर्ड के बारे में जो फैसला आया और उससे पूर्व जो फैसलें अदालतों के आ रहे हैं मुझे लगता है उससे सबक जिम्मेदारों को लेना चाहिए क्योंकि हुक्मरानों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर नीति बनाने पर समय और पैसा खर्च होता है। अगर वह निरस्त हो जाए तो उसे संभालना और अपना पक्ष रखने वाले वकीलों की फीस और अधिकारियों पर जो खर्च होता है वो मामूली नहीं हो सकता। ऐसे जितने भी खर्च बढ़ेंगे आम आदमी पर टैक्स की मार बढ़ती जाएगी। नौकरशाह ना तो अपना खर्च कम करने को तैयार है।
पीएम और सीएम कई बार फिजूलखर्ची पर रोक लगाने की बात कर चुके हैं मगर ऐसे प्रकरणों से सरकारी धन तो बर्बाद हो ही रहा है। शासन की नीति पर विपक्ष को सवाल उठाने का मौका मिल रहा है। ऐसे ही प्रकरणों से जब चुनाव आते हैं तो प्रताड़ित व्यक्ति मतदान कर अपना गुस्सा प्रदर्शित करता है और पूर्व में जो लोकसभा परिणाम आए वो ऐसी ही नीतियों का परिणाम थे। मतदाताओं के इस कथन से मैं भी सहमत हूं। इसलिए जनहित में नीति बनाकर चर्चा कर लागू किया जाए। सीएम को इस ओर ध्यान देने के निर्देश देने चाहिए। इसके उदाहरण के रूप में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे के मामले में सात जजों की पीठ द्वारा जो फैसला देते हुए अल्पसंख्यक दर्जे की हकदार बताया है उसे देखा जा सकता है।
(प्रस्तुतिः संपादक रवि कुमार बिश्नोई दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)

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