घोटाला या फ्राॅड होने पर सीधे जिम्मेदार ठहराया जाए संबंधित अफसर को

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उद्योग व व्यापार को बढ़ावा देने हेतु बैंक कर्मियों की हड़ताल पर लगे रोक

केंद्र सरकार एक तरफ तो देशवासियों के हितों की रक्षा और सुरक्षा की बात करने के साथ ही भ्रष्टाचार और लापरवाही सरकारी कार्यालयों में समाप्त करने की बात कर रही है और माननीय प्रधानमंत्री जी इस संदर्भ में खुद और अपने सहयोगियों के माध्यम से प्रयास भी किए जा रहे हैं। लेकिन केंद्रीय वित्त मंत्रालय पता नहीं वो कौन से कारण है कि आम आदमी के हितों पर कुठाराघात करने वाले कुछ बैंककर्मियों जो उनके खून पसीने की बैंकों में जमा रकम और सामान आदि का अगर किसी भी प्रकार से नुकसान होता है तो उन्हें बचाने के लिए आए दिन नए नए कानून बना रहा है ऐसा आम नागरिकों का इस समाचार को पढ़कर कि फ्राड जांच की निगरानी के लिए जवाबदेह नहीं होंगे बैंक प्रमुख का कहना है।
बताते चलें कि जितना देखने को अब मिलता है उसके हिसाब से सर्वें कराया जाए या ईमानदारी से सरकार देखें तो जितना काम अन्य सरकारी विभागों में कर्मचारी करते हैं उससे आधा काम भी बैंक कर्मियों को नहीं करना पड़ता जबकि सुविधाएं इनके पास हर तरह की बैंकों में उपलब्ध है। छोटे से छोटा कर्मचारी भी एसी में बैठकर काम करता है जबकि अन्य विभागों में बड़े बड़े अफसरों को भी ऐसी की सुविधा उपलब्ध नहीं होती।

इसके बावजूद वित्त मंत्रालय और अन्य संबंध विभाग और उनके अफसर धीरे धीरे अगर देखें तो बैंक कर्मियों और अधिकारियेां को सारी जिम्मेदारियों से मुक्त करते जा रहे हैं। अगर बैंकों में होने वाले फ्राड आदि को ही लें तो पिछले पांच साल में जितने फैसले इनके समर्थन में लिए गए हैं उतने शायद पहले कभी नहीं हुए जबकि इनसे आम आदमी को काफी नुकसान आर्थिक रूप से हो सकता है। यह चर्चा भी नागरिकों में खूब सुनने को मिल रही है।

जनवरी माह में अभी कुछ दिन पहले अपनी मांगों को लेकर कई बैंकों के कर्मचारियों द्वारा हड़ताल की गई थी। और अब 30 और 31 जनवरी को फिर इनकी हड़ताल से बैंक बंद रहेंगे। तथा पहली फरवरी को रविवार होनी की वजह से बैंक बंद रहेंगे। लगातार तीन दिन की हड़ताल से व्यापार का कितना नुकसान होगा और आर्थिक व्यवस्था कितनी गड़बड़ाएंगी यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है भले ही इस दौरान का वेतन कटता हो मगर आम आदमी की आर्थिक समस्याएं तो बढ़ ही जाती है क्योंकि इस दोैरान एटीएम भी पूरी तौर पर काम नहीं कर पाते हैं। और जब छुटटी के बाद बैंक खुलते हैं तो उपभोक्ता के सामने कई प्रकार की समस्याएं खड़ी होती हैं। ज्यादा काम होने का रोना बैंक कर्मी रोते हैं तो कभी इनका सर्वर डाउन रहता है। ऐसे में परेशान उपभोक्ता को ही होना है। जो मुझे लगता है कि ठीक नहीं है।
मेरा मानना है कि वेतन संशोधन सहित बैंक कर्मियों द्वारा 12 सूत्रीय मांगों को लेकर जो यह हड़ताल की जा रही है। ऐसी हड़तालों पर सरकार को जनहित में पूर्ण प्रतिबंध लगाना चाहिए। अगर बैंक कर्मियों को किसी बात का विरोध करना है तो वह काली पटटी बांधकर विदेशों की तरह ज्यादा काम करें जिससे उनकी परेशानी की ओर ध्यान आकर्षित हो सके लेकिन आए दिन की हड़ताल खत्म होनी चाहिए । वैसी भी माह में चार रविवार और दो शनिवार को तो बैंकों का अवकाश रहता ही है अन्य त्योहारों पर पर जो छुटिटयां रहती हैं वो अलग।

मैं किसी भी बैंक कर्मी या अधिकारी द्वारा अपने हित की बात करने वालों का विरोधी नहीं हूं लेकिन सरकार को सिर्फ बैंक कर्मियों की ही नहीं आम आदमी के हित की बात भी सोचनी होगी क्योंकि जिस प्रकार से सरकार उद्योगों और व्यापार को बढ़ावा देनी की बात करती है ऐसी स्थिति में बढ़ावा तो दूर जो वर्तमान में परिस्थितियां है वो भी बनी रहे तो गनीमत है।
जब आम आदमी का कोई नुकसान होता है या जो उद्योग वह चलाता है तो उसमें होने वाले आर्थिक नुकसान को वो खुद भुगतता है जबकि उसकी ना तो कोई लगी बंधी इनकम होती है और ना ही यह गारंटी कि जितना खर्च हो रहा है उतनी आमदनी हो पाएगी। लेकिन बैंक के कर्मियों और अधिकारियों को मोटी मोटी रकमें वेतन के रूप में मिलना अनिवार्य है ऐसे में अगर किसी भी प्रकार की वित्तीय त्रुटि की जिम्मेदारी बैंक कर्मी की होनी चाहिए। सरकार उसे इससे मुक्त कैसे कर सकती है। क्योंकि कितने ही मामलों में फ्राड कर्ता के साथ बैंक कर्मियों की मिलीभगत के मामले खुलकर सामने आते हैं। लेकिन जो निर्णय अब हो रहे हैं उनसे तो कुछ साम दाम दंड भेद की नीति अपनाकर यह लोग जुर्म करने के बाद भी साफ बच सकत हैं। इन तथ्यों को देखते हुए यह जो निर्णय वित्त मंत्रालय लेने जा रहा है जनहित में इस पर एक बार पुनः विचार होना चाहिए।

यह निर्णय ले रहा है वित्त मंत्रालय
सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक प्रमुखों को बड़ी राहत दी है। इसके तहत बैंक अधिकारियों द्वारा किए गए बड़े फ्राॅड के मामलों की जांच के अनुपालन की व्यक्तिगत जवाबदेही बैंक के एमडी और सीईओ की नहीं होगी। वित्त मंत्रलय के वित्तीय सेवा विभाग (डीएफएस) ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निदेशक मंडल को यह अधिकार दिया है कि वह भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के सकरुलर्स द्वारा तय की गई विभिन्न समयसीमाओं के अनुपालन के लिए एक उपयुक्त व्यवस्था करें। सरकार ने इस दिशा में कुछ अन्य कदम भी उठाए हैं। बताया जा रहा है कि आधिकारिक बयान में कहा गया है कि इसी तरह 50 करोड़ रुपये से अधिक की राशि वाले सभी फंसे कर्ज यानी एनपीए संबंधी खातों में धोखाधड़ी की अनिवार्य जांच संबंधी वित्तीय सेवा विभाग के 2015 के दिशानिर्देशों को केंद्रीय सतर्कता आयोग के 15 जनवरी, 2020 के सकरुलर के साथ जोड़ दिया गया है। इसके तहत इस तरह के सभी संदिग्ध मामलों को शुरुआत में पूर्व सतर्कता आयुक्त टीएम भसीन की अध्यक्षता में गठित बैंकिंग एवं वित्तीय धोखाधड़ी परामर्श बोर्ड (एबीबीएफएफ) के पास भेजने के लिए कहा गया है।’ वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कई मौकों पर कहा है कि बैंकों के ईमानदारी से लिए गए वाणिज्यिक फैसलों को पर्याप्त सुरक्षा दी जाएगी। ऐसे मामलों में बैंकरों के बचाव के उपाय किए जाएंगे। वास्तविक कारोबारी विफलता और जानबूझकर की गई धोखाधड़ी के बीच फर्क को रखांकित किया जाएगा। बैंकरों के बीच बड़े स्तर पर ऐसी धारणा है कि यदि उनके द्वारा लिया गया कोई भी व्यावसायिक निर्णय गलत हो जाता है तो उन्हें उसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वित्त मंत्री ने बैंकरों की इस चिंता को दूर करने के लिए पिछले महीने एक बैठक बुलाई थी। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक प्रमुखों के साथ ही केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) के निदेशक भी उपस्थित थे। सीतारमण ने बैंकरों से यह भी कहा था कि इस संबंध में विभिन्न मुद्दों पर सीबीआइ के साथ विचार विमर्श, कार्यशालाओं का आयोजन किया जाएगा ताकि सब की आशंकाएं दूर की जा सकें। इस दौरान वित्त मंत्री ने बैंक प्रमुखों को भी काफी समय से लंबित सतर्कता मामलों को निपटाने के लिए कहा। उनका कहना था कि बैंकों को महाप्रबंधक की अध्यक्षता में पैनल बनाना चाहिए और तय समयसीमा में केस तैयार करने या फाइल बंद करने को लेकर फैसला लेना चाहिए। वित्त मंत्री से बैठक के आधार पर वित्त मंत्रलय ने बैंकों को वरिष्ठ अधिकारियों की एक कमेटी गठित करने का भी निर्देश दिया। यह कमेटी लंबित मामलों की प्रगति पर निगाह रखेगी। मंत्रलय का कहना है कि जांच में देरी से एक ओर कर्मचारियों का मनोबल टूटता है तो दूसरी ओर व्यवस्था की अक्षमता का कारण भी बनती है।
वित्त मंत्रालय का यह सोचना कि इससे कर्मचारियेां का मनोबल बढ़ेगा मुझे लगता है कि ठीक नहीं है क्योंकि इससे भ्रष्टाचार बढ़ने और घोटाले होने की संभावनाएं ज्यादा बढ़ सकती है।

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